Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् ।
अष्टो शङ्कावयश्चेति, दुग्बोषः पञ्चविंशतिः ॥ उपासकाध्ययन श्लोक २४१
श्री पं० पन्नालालजी सागर द्वारा कृत अर्थ - चारित्र के दो भेद हैं । उनमें से पहला जिनेन्द्रवीतरागसर्वज्ञदेव के ज्ञान और दर्शन से शुद्ध सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और दूसरा जिनेन्द्रदेव के सम्यग्ज्ञान के द्वारा निरूपित संयमाचरणचारित्र है |
सम्यक्त्वा चरणचारित्र का दूसरा नाम दर्शनाचारचारित्र । यह दर्शनाचारचारित्र सर्वज्ञ वीतराग के द्वारा प्रतिपादित ज्ञान और दर्शन से शुद्ध है अर्थात् आगे कहे जाने वाले पच्चीस दोषों से रहित है । तथा संयमाचरण चारित्र का दूसरा नाम चारित्राचार है यह चारित्राचारचारित्र जिनेन्द्रदेव के सम्यग्ज्ञान द्वारा अच्छी तरह निरूपित है । पच्चीस दोष इसप्रकार हैं
तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शङ्का आदि आठ दोष ये सम्यग्दर्शन के २५ दोष हैं ।
इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द आचार्य तथा संस्कृत टीकाकार ने यह बतलाया है कि सम्यग्दर्शन की शुद्धता अर्थात् सम्यग्दर्शन में २५ दोष न लगने देना सम्यक्त्वाचरणचारित्र है । टीकाकार ने २५ दोषों को बतलाने के लिये जो श्लोक उद्धृत किया है वह उपासकाध्ययन का श्लोक नं० २४१ है । इससे विदित होता है कि उपासकाध्ययन के श्लोक नं० २४१ में सम्यक्त्व के २५ दोषों के कथन द्वारा सम्यक्त्वाचरण चारित्र का कथन किया गया और उसके अनन्तर ही श्लोक २४२ में निश्चयोचितचारित्रः का प्रयोग किया गया है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने जिसको सम्यक्त्वाचरणचारित्र कहा है उसी को सोमदेव सूरि ने “निश्चयोचितचारित्र" कहा है। अतः " निश्चयोचितचारित्र" का अर्थ – “सम्यक्त्वा चरणचारित्र" करना उचित है ।
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
चारित्रपाहड़ गाथा ५ की टीका का समर्थन चारित्रपाहुड़ की गाथा ६, ७, ८ और ९ में होता है । वे गाथाएं इस प्रकार हैं ।
एवं चिय णाऊण य सब्वे, मिच्छत्तदोस संकाई । परिहर सम्मत्तमला, जिणभजिया तिविहजोएन ॥६॥
निस्संकिय णिक्कंखिय, निव्विबिगिंछा अमूढविट्ठी य । उवगूहण ठिदिकरणं, वच्छल्ल पहावणाय ते अट्ठ ॥७॥
तं चैव गुणविसुद्ध जिणसम्मतं सुमुक्खठाणाए । जं चर णाणजुरी, पढमं सम्मत्तचरणचारिस ॥८॥
सम्मतच रणसुद्धा, संजमचरणस्स जड़ व सुपसिद्धा । पाणी अमूढबिट्टी अचिरे, पावंति णिव्वाणं ॥९॥
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