Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 912
________________ ८६८] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । "सम्मामिच्छत्तदए संते सहहणासद्दहणप्पओ करंचिओ जीवपरिणामो उप्पज्जइ । तत्थ जो सद्दहणंसो सो सम्मत्तावययो। तं सम्मामिच्छत दओ णविणादि ति सम्मामिच्छ खओवसमियं ।" अर्थ-सम्यग्मिध्यात्वकर्म के उदय होने पर श्रद्धानअश्रद्धानात्मक मिश्रित जीवपरिणाम उत्पन्न होता है, उसमें जो श्रद्धान का अंश है वह सम्यक्त्व का अवयव है। उस श्रद्धानांश को सम्यग्मिथ्यात्वकर्मोदय नहीं नष्ट करता है, इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है। इसीप्रकार यदि अनन्तानुबन्धीकर्मोदय के अभाव में अप्रत्याख्यानावरणचारित्र प्रतिबंधी कर्मोदय होनेपर भी जीवके चारित्रगुण का यदि कोई अवयव (अंश) प्रगट होता तो वह चारित्र गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता; किन्तु द्वादशांग में चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्र की अपेक्षा औदयिकभाव कहा गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्थ गुणस्थान में अनन्तानुबंधी का अभाव हो जाने पर भी चारित्र गुण का अंश प्रगट नहीं होता है । कहा भी है "ण चारित्तमोहणिज्जा वि, अपच्चक्खाणावरणादीहि चेव आवरिवचारित्तस्स आवरणे फलाभावा ।" अनन्तानुबंधी कर्म चारित्र को मोहन ( घात) करने वाला भी नहीं है, अन्यथा अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायों के चारित्र को आवरण करनेरूप फल का अभाव हो जायगा । यदि अनन्तानुबन्धीकषाय चारित्रगुण को घात नहीं करती है तो उसको चारित्रमोहनीयकर्म क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर श्री वीरसेनाचार्य ने निम्न प्रकार दिया है "ण चाणताणुबंधिचउक्कवावारी चारित्ते णिप्फलो, अपच्चक्खाणाविअणंतोदयपवाहकारणस्स णिप्फलत्तविरोहा।" धवल ६।४३ । अर्थ-चारित्र में अनन्तानुबन्धिचतुष्कका व्यापार निष्फल भी नहीं है, क्योंकि चारित्र को घातक अप्रत्याख्यानावरणादि के उवय को अनन्तप्रवाह में अनन्तानुबन्धी कारण है। अतः अनन्तानुबन्धी के चारित्र में निष्फलत्व का विरोध ( अभाव ) है। इन आर्ष प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि अनन्तानुबन्धी किसी चारित्र की घातक नहीं है और न उसके अभाव में कोई चारित्र प्रगट होता है। -जं. ग. 30-4-70/IX/ र. ला. प्लेन स्वरूपाचरण जीव की प्रत्येक अवस्था में नहीं पाया जाता शंका-क्या स्वरूपाचरण व्यापक है ? क्या यह जीव की प्रत्येक अवस्था में पाया जाता है ? समाधान-'स्वरूपाचरण' चारित्र गुण को पर्याय है, जिसका स्वरूप श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने निम्नप्रकार कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 910 911 912 913 914 915 916 917 918