Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८६१
मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हमा विपरीताभिनिवेश वहां नहीं पाया जाता है, इसलिये उसे मिथ्याडष्टि नहीं कहते हैं, केवल सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं ।
प्रश्न-ऊपर के कथनानुसार अब वह मिथ्याइष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी जाती?
उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि सासादनगुणस्थान को स्वतंत्र कहने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है ।
दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है, जिससे कि सासादनगुणस्थान को मिथ्याष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादष्टि कहा जाता। तथा जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से दूसरे गुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेद नहीं, क्योंकि वह चारित्रमोहनीय है ।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक होने से उसे उभयरूप ( दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय ) संज्ञा दना न्यायसंगत है ?
उत्तर-यह आरोप ठीक नहीं, क्योंकि यह तो हमें इष्ट ही है, अनन्तानुबन्धी को उभयरूप माना ही है। फिर भी परमागम में मुख्य नय की अपेक्षा इस तरह का ( उभयरूप संज्ञा का ) उपदेश नहीं दिया है।
विवक्षित दर्शनमोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना सासादनगुणस्थान उत्पन्न होता है, इसलिये वह पारिणामिक है । [धवल पु० १ पृ० १६४-१६५]
तीसरे सम्यग्मिथ्याष्टि गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव बतलाया है, वहां पर यह प्रश्न हुआ कि अनंतानुबन्धी के क्षयोपशम से क्या क्षायोपशमिक भाव कहा गया है ? इसके उत्तर में भी यही कहा गया कि अनन्तानुबन्धी चारित्रमोहनीयकर्म की प्रकृति है और प्रथम चार गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयकर्म की विवक्षा नहीं, दर्शनमोहनीय की विवक्षा है। दर्शनमोहनीयकर्म की अपेक्षा से तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव कहा गया है । आगम इस प्रकार है
"पंचसु गुणेष कोऽयं गुण इति चेत् क्षायोपशमिकः ।" ( धवल पु० १ पृ० १६७ ) अर्थ-पांच प्रकार के भावों में से तीसरे गुणस्थान में कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है।
"मिथ्यात्वक्षयोपशमादिवानन्तानुबन्धीनामपि सर्वघातिस्पर्धकक्षयोपशमाज्जातमिति सम्यग्मिथ्यात्वं किमिति नोग्यते इति चेन्न, तस्य चारित्रप्रतिबन्धकत्वातू। येत्वनन्तानुबन्धिक्षयोपशमानुत्पत्ति प्रतिजानते तेषां सासावनग्रण औवयिक: स्यात्, न चैवमनभ्युपगमात् ।" (धवल पु० १ पृ० १६८-१६९ )
प्रश्न-जिसप्रकार मिथ्यात्व के क्षयोपशम से सम्यग्मिथ्यास्व गुरणस्थान की उत्पत्ति बतला कर क्षायोपशमिकभाव सिद्ध किया है, उसीप्रकार अनन्तानुबन्धीकर्म के सर्वघातिस्पर्धकों के क्षयोपशम से उत्पत्ति बतलाकर क्षायोपशमिकभाव क्यों नहीं कहा ?
उत्तर-क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय चारित्रमोहनीय है, इसलिये यहां उसके क्षयोपशम से तृतीयगुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव नहीं कहा गया।
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