Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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भावं तिविहपयारं सुहासुहे सुद्धमेव णादग्वे ।
असुहं अट्टरउद्द सुह धम्मं जिणवरिवेहि ॥ ७६ ॥ भावपाहुड़
श्री कुम्बकुन्दाचार्य ने इस गाथा में जीव के भाव तीन प्रकार के बतलाये हैं, (१) शुभ ( २ ) अशुभ ( ३ ) शुद्ध । आतं रौद्ररूप परिणाम अशुभ हैं और धर्मध्यान शुभपरिणाम है । चतुर्थंगुरणस्थान में शुक्लध्यान तो हो नहीं सकता । धर्मध्यान हो सकता है जो शुभोपयोगरूप है शुद्धोपयोगरूप नहीं है । किसी भी आर्ष ग्रन्थ में चतुर्थं गुणस्थान शुद्धोपयोग का कथन नहीं है ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
- जै. ग. 20-11-69 / VII / ब्र. स. म. जैन, सच्चिदानन्द
शुद्धोपयोग व्रती के नहीं होता
शंका- सोनगढ़ से प्रकाशित २ मार्च १९६४ के हिन्दी आत्मधर्म पृष्ठ ६०९ पर लिखा है कि 'शुद्धोपयोग की शुरूआत चौथे गुणस्थान में होती है ।' क्या यह कथन ठीक है ?
समाधान-चतुर्थं गुणस्थान में चारित्र नहीं है और वह इन्द्रियों के विषयों से विरक्त भी नहीं है, ऐसा आर्ष ग्रन्थों में सिद्ध किया गया है । चारित्ररहित के शुद्धोपयोग सम्भव नहीं है। शुद्धोपयोग तो शुक्लध्यान के समय होता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने शुद्धोपयोगी का लक्षण निम्नप्रकार कहा है
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सुविविदपयत्यसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो ।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओोगो ति ॥ १४ ॥ प्रवचनसार
जिसने पदार्थों को और सूत्रों को भली-भांति जान लिया है और जो संयम व तप से युक्त है, रागरहित है तथा सुख-दुःख में समता भाववाला है ऐसा श्रमण ( मुनि ) शुद्धोपयोगी कहा गया है ।
. श्री कुन्दकुन्दस्वामी के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरागसंयमवाले मुनि के भी शुद्धोपयोग की शुरुआत सम्भव नहीं है । वीतराग संयमवाले मुनि के अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से शुद्धोपयोग की शुरुआत होती है ।
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भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णादध्वं ।
असुहं अट्टरउद्दं सुह धम्मं जिणवरदेहि ॥ अष्टपाहुड़
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इस गाथा में शुभ, अशुभ और शुद्ध तीनप्रकार के भाव बतलाये । आतं श्रर रौद्ररूप परिणाम तथा ध्यान अशुभोपयोग है । धर्मध्यान शुभोपयोग है । इसीसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि शुक्लध्यान शुद्धोपयोग है ।
अप्रमत्त संयत से पूर्व शुक्लध्यान नहीं हो सकता है अतः श्रप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान से पूर्व शुद्धोपयोग भी संभव नहीं है ।
इसी बात को श्री जयसेन आचार्य ने प्राभृत शास्त्र के आधार से प्रवचनसार गाथा ९ की टीका में निम्न प्रकार कहा है
"अथ प्राभृतशास्त्र तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण कथितानि । कथमिति चेतृमिथ्यात्व सासादन मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुमोपयोगः, तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि देशविरत प्रमत्तसंयत गुणस्थान
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