Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
सम्माविटिस्स वि अविरवस्स ण तवो महागुणो होदि ।
होदि हु हथिण्हाणं चुंदुच्छिदकम्म तं तस्स ॥ ५२ ॥ मूलाचार पृ० ४७५ अर्थ-व्रतरहित सम्यग्दृष्टि का तप महागुण महोपकारक नहीं है। जैसे हाथी स्नान करके भी निर्मलता धारण नहीं करता, क्योंकि अपनी शूड से धूलि डालता रहता है और सर्वअंग मलिन करता है। वैसे अविरतसम्यग्रष्टिजीव असंयम के द्वारा बहुतर कर्माश को बांधता रहता है । जैसे लकड़ी में छिद्र पाड़ने वाला बर्मा छेद करते समय डोरी बांध कर घुमाते हैं । उससमय उसकी डोरी एक तरफ से ढीली होती हुई दूसरी तरफ उसको दृढ़ बद्ध करती है। वैसे चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि का पूर्वबद्धकर्म निर्जीर्ण होता हुआ उसीसमय असंयम द्वारा बहुतर नवीनकर्म बंध कर लेता है।
यदि चतुर्थगुणस्थान में हरसमय स्वरूप में रमणता अथवा स्थिरता होती तो इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्ति नहीं हो सकती थी। और द्वादशांग में उसके क्षयोपशमचारित्र का कथन अवश्य होता। अतः चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र नहीं होता है।
चतुर्थगुणस्थानवी अविरतगृहस्थ के स्वरूप में स्थिरता भी संभव नहीं है, क्योंकि स्वरूप में स्थिरता ध्यान है-"स्थिरमध्यवसानं यत्तर यानं" किन्तु गृहस्थ के ध्यान की सिद्धि किसी देश व काल में संभव नहीं है। कहा भी है
खपुष्पमथवा शङ्ग खरस्यापि प्रतीयते ।
न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिाहाश्रमे ॥१७॥ ज्ञानार्णव अर्थ-पाकाश के पूष्प और गधे के सींग नहीं होते हैं। कदाचित किसी काल में इनके होने की प्रतीति हो सकती है, परन्तु ग्रहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी तो किसी देश व काल में संभव नहीं है।
प्रायः कुतो गृहगते परमात्माबोधः शद्धात्मनो भुवि यतः पुरुषार्थसिद्धिः। दानात्पुनर्ननु चतुर्विधतः करस्था,
सा लीलयव कुतपात्र-जनानुषंगातु ॥२॥१५॥ ( पअनन्दि पं० वि० ) जिस उत्कृष्ट प्रात्म-स्वरूप के ज्ञान से शुद्ध आत्मा के पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, वह पात्मज्ञान गृहस्थों के कहाँ से हो सकता है ? नहीं हो सकता है।
"मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते । तप्तलोहगोलकसमानं गृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते। तेषां वानपूजा. पर्वोपवास सम्यक्त्वप्रतिपालनशीलव्रतरक्षणादिकं गृहस्थधम एवोपविष्टं भवतीति भावार्यः। ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्म-भावनामासद्य वयं ध्यानिन इति ब्रवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः।"
मोक्ष-प्राभृत, गाया २ टीका मुनियों के ही परमात्मा का ध्यान घटित होता है। गृहस्थ तप्त लोहे के गोले के समान होते हैं, उनके परमात्मा का ध्यान नहीं होता। उनके लिये दान, पूजादि गृहस्थधर्म का ही उपदेश दिया गया है। किंचित आत्मभावना को प्राप्तकर जो गृहस्थ यह कहते हैं कि हम ध्यानी हैं, उनको जिनधर्म के विराषक मियादृष्टि जानना चाहिए।
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