Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 892
________________ ८४८ ] "सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम् ।” सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होने पर चारित्र की प्राप्ति का नियम नहीं है, भजनीय है अर्थात् चारित्र प्राप्त हो न भी हो । [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । प्राचीन आचार्यों का इतना स्पष्ट कथन होते हुए यह कहना ठीक नहीं है कि " सम्यग्दर्शन का और स्वरूपाचरणचारित्र का अविनाभावी सम्बन्ध है ।" चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र के विषय में कुछ विद्वानों की निजी कल्पना है जिसका समर्थन आर्ष ग्रन्थों से नहीं होता है । - जै. ग. 1-1-70/ VII / रो. ला. मित्तल शंका-उपासकाध्ययन पृ० १२० पर भावार्थ में श्री पंडित कैलाशचन्दजी ने प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के साथ स्वरूपाचरणचारित्र का भी कथन किया है और हेतु यह दिया है कि चारित्र के बिना संवर व निर्जरा संभव नहीं है । स्वरूपाचरणचारित्र को शुद्धात्मानुभव का अविनाभावी भी बतलाया है। क्या चतुर्थगुणस्थान में चारित्र सम्भव है ? यदि चारित्र होता है तो उसका नाम असंयतसम्यग्दृष्टि क्यों रखा गया है ? समाधान- किसी भी दि० जैन आचार्य ने चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र का कथन नहीं किया है । चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र की कुछ विद्वानों की निजी कल्पना है जिसका समर्थन किसी भी आर्ष ग्रन्थ से नहीं होता है । यदि श्री पं० कैलाशचन्दजी के उल्लेखानुसार चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र स्वीकार कर लिया जाय तो प्रश्न यह होता है कि वह स्वरूपाचरणचारित्र, औपशमिक आदि पाँचभावों में से कौनसा भाव है ? स्वरूपाचरणचारित्र औपशमिकभाव तो हो नहीं सकता, क्योंकि औपशमिकसम्यक्त्व और औपशमिकचारित्र के भेदसे पशमिकभाव दो प्रकार का है, जैसा कि 'सम्यक्त्वचारित्रे' सूत्र द्वारा कहा गया है । औपशमिकचारित्र तो उपशमश्रेणी में संभव है, किन्तु चतुर्थगुणस्थान में उपशमश्रेणी है नहीं । स्वरूपाचरणचारित्र को क्षायिकचारित्र भी नहीं कह सकते, क्योंकि क्षायिकचारित्र क्षपकश्रेणी में होता है । यदि यह कहा जाय कि स्वरूपाचरणचारित्र क्षायोपशमिकभाव है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी सर्वघाती प्रकृति के उदयाभावक्षय से और सदवस्थारूप उपशमसे उत्पन्न हुआ है । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी का उदयाभावक्षय और सदवस्थारूप उपशप तो तीसरे गुणस्थान में भी पाया जाता है, अत: तीसरे गुणस्थान में भी क्षायोपशमिकचारित्र का प्रसंग आ जायगा। जिनके अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना हो गई है उनके तीसरे व चौथे गुणस्थान में क्षायोपशमिकचारित्र नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी का सत्व न रहने से सर्वघातिया का उदयाभावक्षय और सदवस्थारूप उपशम नहीं घटित होता है, ऐसे जीवों के तो तीसरे चौथे गुरणस्थान में ही चारित्र की अपेक्षा क्षायिकभाव का प्रसंग आ जायगा । द्वादशांग के सूत्र में तो चारित्र की अपेक्षा तीसरेचौथे गुणस्थान में औदयिकभाव कहा गया I "ओदइएण भावेण पुणो असंजदो || ६ || सम्मादिट्ठीए तिष्णि भावे भणिऊण असंजदत्तस्स कदमो भावो होदित्ति जाणावणटुमेदं सुतमागदं । संजमघादीणं कम्माणमुदएण जेणेसो असंजवो तेण असंजदो त्ति ओवइओ भावो । हेट्ठिल्लाणं गुणद्वाणाणमोबइयमसंजदत्त किष्ण परुविदं ? ण एस दोसो, एदेणेव तेसिमोवइयअसंजदभावोवलद्धीदो ।" धवल पु० ५ पृ० २०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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