Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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की अपेक्षा से स्वरूपाचरण है तो इन ४१ प्रकृतियों का संवर तो सम्यग्मिथ्यात्व तीसरे गुरणस्थान में भी है अत। तीसरे गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण का प्रसंग आ जायगा । मिथ्यात्व गुणस्थान में भी प्रायोगल ब्धि में ३४ बंधापसरण द्वारा ४६ प्रकृतियों का ग्रहण रुक जाता है वहाँ भी स्वरूपाचरण का प्रसंग आजायगा।
जब दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनोय कर्म का अभाव हो जाता है और आत्मा के समस्त मोह-क्षोभ विहीन परिणाम हो जाते हैं उससमय स्वरूपाचरण प्रगट होता है। ऐसा पंचाध्यायी में श्री पं० राजमल्ल ने कहा है फिर वे अपने इस कथन के विरुद्ध लाटीसंहिता में चतुर्थ गूणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र का कथन नहीं कर सकते थे। संभवतः भाषाकार ने अपना मत लिखा है।
शंका-लाटीसंहिता पृ० १९४ पर भाषाकार लिखते हैं कि सम्यग्दर्शन का अविनाभावी स्वरूपाचरणचारित्र है, क्रियारूप चारित्र नहीं, क्योंकि क्रियारूप चारित्र पांचवें गुणस्थान से प्रारम्भ होता है, इसलिये चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र होता है। क्या यह कथन ठीक है ?
शंका-ला. सं. पृ० १९४ पर लिखा है "स्वरूपाचरण चारित्र व सम्यग्ज्ञान दोनों ही सम्यग्दर्शन के साथ होने वाले हैं, क्योंकि यह तीनों हो अविनाभावी हैं।" भाषाकार ने इन तीनों को अखंडित कहा है। प्रश्न यह है कि यदि यह तीनों अखंडित हैं तो तीनों एक साथ क्षायिक हो जाने चाहिये थे, किन्तु सम्यग्दर्शन सातवें गुणस्थान तक क्षायिक हो जाता है। बारहवेंगुणस्थान में सम्यक्चारित्र क्षायिक होता है और सम्यग्ज्ञान तेरहवेंगुणस्थान में क्षायिक होता है। फिर यह तीनों अखंडित कैसे ?
समाधान-सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र का अविनाभावी संबंध नहीं है । क्योंकि चतुर्थगुणस्थान में चारित्र के अभाव में भी सम्यग्दर्शन होता है।
समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम ।
स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थान चतुर्थ के ॥७४/५४३॥ ( उ. पु.) अर्थ-सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सहित ही होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान चतुर्थगुणस्थान में सम्यक्चारित्र बिना भी होता है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य प्रवचनसार में कहते हैं
"सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥२३७॥" अर्थ--पदार्थों का श्रद्धान करनेवाला अर्थात् सम्यग्दृष्टि यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है।
"संयम शून्यात श्रद्धानात ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः।" ( गाथा २३७ को टीका ) अर्थ-संयम शून्य श्रद्धान व ज्ञान से सिद्धि नहीं होती।
श्री कुन्दकुन्द व श्री अमृतचन्द्र आचार्य के उपयुक्त वाक्यों से यह सिद्ध होता है कि चारित्ररहित भी सम्यग्दर्शन होता है। इससे 'सम्यग्दर्शन का अविनाभावी स्वरूपाचरणचारित्र है।' लाटी संहिता के भाषाकार के इस सिद्धान्त का खंडन हो जाता है।
श्री अकलंकदेव भी राजवातिक में कहते हैं।
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