Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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भ्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८४९
असंयत सम्यग्दृष्टि का (चतुर्थ गुणस्थान में ) असंयतत्व औदयिकभाव है ॥६।। असंयतसम्यग्दृष्टि के सम्यग्दर्शन की अपेक्षा औपशमिक, क्षायोपशमिक व क्षायिक तीनों भाव कहकर उसके असंयतत्व की अपेक्षा कौनसा भाव होता है, इस बात को बतलाने के लिये यह सूत्र आया है। चूकि संयम के घात करनेवाले कर्मों के उदय से यह असंयत होता है इसलिये 'असंयत' प्रौदयिकभाव है। इसी सूत्र से अधस्तन ( तीसरे, दूसरे, प्रथम ) गुणस्थानों में औदयिक असंयतभाव की उपलब्धि होती है ।
यदि श्री पं० कैलाशचन्दजी के मतानुसार यह मान लिया जाये कि चारित्र के बिना संवर निर्जरा नहीं होती तो मिथ्यादृष्टि के प्रायोग्यलब्धि में स्थितिघात-अनुभागघात व ४६ प्रकृतियों के संवर होने से तथा कारणलब्धि में प्रतिसमय असंख्यातगुणित निर्जरा व स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात होने से मिथ्यादृष्टि के भी चारित्र के सद्भाव का प्रसंग आ जायगा।
यदि चतुर्थगुणस्थान में शुद्धात्मानुभवरूप सम्यक्त्व का अविनाभावी स्वरूपाचरणचारित्र का नियम माना जावे तो चतुर्थगुणस्थान की असंयतसम्यग्दष्टि ऐसी संज्ञा नहीं रहेगी तथा श्री अकलंकदेव के 'सम्यग्दर्शनस्य सम्यग
मलाभे चारित्रमत्तरं भजनीयम ।' प्रर्थात सम्यग्दर्शन के होनेपर चारित्र होने का नियम नहीं है' इन वाक्यों से विरोध आ जायगा । श्री कुन्दकुन्द आचार्य का, 'सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण गिव्वादि ।' अर्थात् पदार्थों का श्रद्धान करनेवाले सम्यग्दृष्टि असंयत को निर्वाण प्राप्त नहीं होता, यह वाक्य व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि सम्यक्त्व का अविनाभावी स्वरूपाचरणचारित्र को मानने से कोई भी सम्यग्दृष्टि असंयत नहीं होगा। प्रतः चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र की कल्पना आगम अनुकूल नहीं है।
-प्न.ग. 4-1-73/V/कमलादेवी
शंका-चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र नहीं होता, इसका क्या प्रमाण है ? समाधान-श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के वाक्य निम्न प्रकार हैं"चारित्त पत्थि जदो अविरदतेसु ठाणेसु ।" अर्थ-चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त चारित्र नहीं होता है।
समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम् ।।
स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थाने चतुर्थके ॥ ( उत्तरपुराण ७४१५४३ ) अर्थ-सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से सहित ही होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक् चारित्र के बिना भी होते हैं ।
-जे.ग. 29-1-70/VII) 5. पं. सच्चिदानन्द
शंका-१० अप्रेल ६९ के जैन सन्देश के लेख में पं० राजधरलाल ने सर्वार्थसिद्धि से जो चारित्र का लक्षण उधृत करते हुए बतलाया है कि चतुर्थ गुणस्थान में ४१ प्रकृतियों का संवर हो जाने के कारण वहाँ पर चारित्र की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि संवर चारित्र का कार्य है । क्या यह ठीक है ?
समाधान-चतुर्थ गुणस्थान में यदि मात्र ४१ प्रकृतियों के संवर के कारण संयम माना जायगा तो तीसरे गुणस्थान में भी संयम मानना होगा क्योंकि वहाँ पर भी उन्हीं ४१ प्रकृतियों का संवर है । इतना ही नहीं दूसरे
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