Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 876
________________ ८३२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : के कारणों को चारपना सिद्ध नहीं होता है । मिध्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग को बंध का हेतु बतलाया (१० ८ सू०१) वहाँ पर अविरत शब्द से मिथ्याचारित्र और चतुर्थगुणस्थान का असंयम दोनों ग्रहण किये गये हैं। प्रथमगुणस्थान से चतुर्थगुणस्थान तक चारित्रमोहनीयकर्मोदय से जो असंयमभाव उत्पन्न होता है वही प्रथम व दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी की सहचरता से मिथ्याचारित्र कहलाता है। श्री पुष्पवंत-भूतबली को श्री धरसेनाचार्य से जो द्वादशांग के सूत्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ था, उन्होंने उन सूत्रों को षट्खंडागम में लिपिबद्ध किया है । उन सूत्रों में कहा है असंजदसम्माइट्रि त्ति को भावो, उवसमिमओ वा खइलो वा खइओ वा खोवसमिओ वा भावो ॥५॥ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ ६ ॥ अर्थ-असंयतसम्यग्दृष्टि के कोनसा भाव है ? औपशमिकभाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशमिकभाव भी है, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि का असंयतभाव औदयिक है । इसपर यह प्रश्न हुआ कि अधस्तन गुणस्थानों में औदयिक-प्रसंयतभाव है, ऐसा द्वादशांग सूत्रों में क्यों नहीं कहा गया है ? इसका श्री वीरसेनाचार्य उत्तर देते हैं 'इसी सूत्रसे उन अधस्तन गुणस्थानों के औदयिकअसंयतभाव की उपलब्धि होती है। चूकि यह सूत्र अंतदीपक है, इसलिये असंयतभाव को अन्त में रख देने से वह पूर्वोक्त सभी सूत्रों का अंग बन जा सर्व सत्रों में अपने अस्तित्व को प्रकाशित करता है, इसलिये सभी अतीत गुणस्थानों का प्र. है यह बात सिद्ध होती है। यहाँ तक अर्थात् चतुर्थगुणस्थान तक के गुणस्थानों के असंयमभाव की सीमा बतलाने के लिये और ऊपर के गुणस्थानों में असंयतभाव का प्रतिवेष करने के लिये यह 'असंयत' पद यहाँ पर कहा है ।' यदि यह कहा जाय कि व्रतरूप चारित्र तो चतुर्थगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु स्वरूप में स्थिरतारूप जो अनुभूति होती है वह चारित्र वहाँ पर होता है। तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। यदि चतुर्थगुणस्थान में लेशमात्र भी चारित्र होता तो चतुर्थगुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा से भी क्षायोपशमिकभाव कहते, प्रौदयिकभाव न कहते, क्योंकि चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयोपशम बिना क्षण भर के लिये भी लेश-मात्र चारित्र नहीं हो सकता है। यदि कहा जाय कि अप्रत्याख्यानावरण सर्वघातिप्रकृति का उदय चतुर्थ गुणस्थान में रहता है इसलिए चारित्र की अपेक्षा चतुर्थगुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव नहीं कहा गया सो ऐसी कल्पना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पंचम गणस्थान में प्रत्याख्यानावरण सर्वघातिप्रकृति का उदय रहता है, किन्तु एकदेश चारित्र प्रगट हो जाने से पंचमगुणस्थान में चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिकभाव कहा है । कहा भी है 'संजदासंजद-पमत्त अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ मावो ॥९॥ अर्थ-संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिकभाव है। धवल पु० ५ पृ० २०१ सूत्र ७ तीसरे गुणस्थान में दर्शनमोहनीयकर्म की सम्यग्मिथ्यात्व सर्वघातिप्रकृति का उदय रहता है फिर भी सम्यग्दर्शन का अंश प्रगट हो जानेसे तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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