Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८११ चारित्तं खलु धम्मो शंका-'चारित्तं खलु धम्मो' से क्या अभिप्राय है ।
समाधान-श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने "चारितं खलु धम्मो" इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि सम्यक्चारित्र ही वास्तव में धर्म है। उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, ये धर्म के दसलक्षण हैं। धर्म के इन दसलक्षणों से भी यही प्रतीत होता है कि धर्म वास्त चारित्र के द्वारा ही धर्म की प्रभावना होती है। आज से ५०-६० वर्ष पूर्व जैनियों का प्राचरण व खानपीन बहत उज्ज्वल था। कोई भी जैनधर्म का अनुयायी कारागृह में नहीं था। इसका मुख्य कारण यह था कि विद्वानों के तथा त्यागीगणों के उपदेशों में चारित्र की मुख्यता रहती थी। प्रतिदिन की शास्त्र-सभा में भी प्रायः चरणानुयोग और प्रथमानुयोग के ग्रन्थों की वांचना होती थी, जिसके कारण जन-समाज पाप से भयभीत रहती थी और चारित्र का पालन करती थी। सामूहिक प्रीतिभोज में रात्रिभोजन करनेवाला कोई नहीं होता था। प्रायः सभी प्रतिदिन देवदर्शन करके भोजन करते थे, तथा मनछने जल का तो प्रयोग होता ही नहीं था।
किन्तु २०-३० वर्षों से कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ कि विद्वानों ने चरणानुयोग का उपदेश देना बन्द कर दिया और मात्र एक शुद्ध आत्मा की कथनी प्रारम्भ कर दी। इतना ही नहीं त्याग, नियम, व्रत आदि को हेय तथा संसार का कारण बतला कर जनता को चारित्र से विमुक्त करने लगे। 'दया अधर्म है, ऐसा उपदेश सुनकर नवयुवकों के हृदयों में से दया जाती रही है जिसके कारण मांस व अंडे का प्रचार जैनों में बढ़ता जा रहा है। सामूहिक रात्रि भोजन व अनछने जल का प्रयोग होने लगा है। आज ऐसा कोई आराध नहीं कि जिस के आरोप में जैनभाई कारागृह में बन्द न हों। "देव, गुरु, शास्त्र परद्रव्य हैं, इनसे आत्मा का भला होने वाला नहीं है" इस उपदेश को सुनकर युवकों तथा युवतियों ने देवदर्शन, स्वाध्याय आदि छोड़ दी है। शारीरिक क्रिया का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता इस ऐकास्तिक उपदेश के द्वारा भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक जाता रहा है, अनर्गल प्रवृत्ति होने लगी है, प्रत्येक अपने को शुद्ध-बुद्ध, निरंजन, अबंधक मानने लगा है । आज चारित्र हीन जैन समाज के कारण जैनधर्म की अप्रभावना ही हो रही है।
आत्मज्ञान व श्रद्धान यद्यपि अावश्यक है, किन्तु उससे पूर्व उसकी योग्यता की भी तो आवश्यकता है। उस योग्यता के बिना उस आत्म-कथनी का वही फल होगा जो फल बीज को बंजड़ भूमि में बोने से होता है। सर्व प्रथम आत्मज्ञान-श्रद्धान की योग्यता का उपदेश होना चाहिये । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है
अष्टावनिष्टदुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवर्य ।
जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥७४॥ ( पुरुषार्थ. सि० ) अर्थ-दुःखदायक, दुस्तर और पापों के स्थान मद्य, मांस, मधु और पाँच उदम्बरफल इन आठ पदार्थों का त्याग करने पर ही पुरुष निर्मल बुद्धिवाला होता हुआ जैनधर्म के उपदेश का पात्र होता है।
इस श्लोक द्वारा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिससमय तक पुरुष मद्य-मांस-मधु प्रादि के त्याग द्वारा अपना आचरण पवित्र न बना लेवे उससमय तक वह जैनधर्म के उपदेश का पात्र नहीं है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पात्र की योग्यता अनुसार ही उपदेश देना चाहिए । इसका दृष्टान्त इसप्रकार है
विन्ध्याचल पर्वतपर एक कुटज नामक वन था। उसमें खदिरसार भील रहता था। एक दिन उसने श्री समाधिगुप्त मुनिराज के दर्शन कर बड़ी प्रसन्नता से नमस्कार किया। इसके उत्तर में मुनिराज ने यह आशीर्वाद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org