Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 868
________________ ८२४ ] "मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । ( त० सू० १०1१ ) अर्थात् — मोहकमें के क्षय हो जाने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होता है ओर इन कर्मों का क्षय हो जाने से केवल ( क्षायिक ) ज्ञान होता है । इस सूत्र से भी सिद्ध है कि मोह के क्षय होजाने से क्षायिक ( यथाख्यात ) चारित्र होता है और उसके पश्चात् क्षायिक ( केवल ) ज्ञान होता है । यदि क्षायिकचारित्र में तरतमता मानी जायगी तो क्षायिकज्ञान क्षायिकदर्शन और क्षायिकवीयं में भी तरतमता का प्रसंग आ जायगा और इससे अरहंत भगवान व सिद्ध भगवान में गुणकृत भेद हो जायगा, किन्तु इन दोनों में गुणकृत भेद नहीं है। श्री वीरसेनस्वामी ने धवल पु० १ पृ० ४७ पर कहा है'अस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् ।' अर्थात् यदि अरिहंत और सिद्धों में गुरणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होभो, क्योंकि वह न्यायसंगत है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । जह्मा वु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोदि परिणमदि । अण्णत्तं णाणगुणो तेणं दु सो बंधगो भणिदो ॥ १११ ॥ समयसार टीका - स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यं माविरागसद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात् । गाथा अर्थ क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण के कारण फिर से भी अन्यरूप से परिणमन करता है इसलिये कर्मों का बंधक कहा गया है । टोकार्थ -- वह ज्ञानगुण यथाख्यातचारित्र प्रवस्था से नीचे अवश्यंभावी राग के सद्भाव होने से बंध का कारण ही है । इससे सिद्ध होता है कि यथाख्यातचारित्र में राग-द्वेष आदि कषाय नहीं हैं, अर्थात् पूर्ण वीतरागरूप होने से उसमें वीतरागता की तरतमता नहीं है । चारित्र का घातक अथवा चारित्र में तरतमता उत्पन्न करनेवाले चारित्रमोहनीयकर्म का उदय है । चारित्रमोहनीयकर्म की सर्वप्रकृतियों के उदय का अभाव होने से यथाख्यातचारित्र में सरतमता सम्भव नहीं है । कुछ का कहना है कि यदि यथाख्यातचारित्र में तरतमता न होती तो तेरहवेंगुणस्थान के प्रथमसमय में सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र क्षायिक अर्थात् पूर्ण हो जाने से तत्काल मोक्ष हो जाना चाहिये था । अन्यथा 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र मोक्षमार्गः यह सूत्र बाधित होता है । किन्तु उनका ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि भी विद्यानन्द आचार्य ने श्लोकवार्तिक में कहा है कि क्षायिकसम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र हो जाने पर भी काल आदि की प्रपेक्षा रहती है, इसलिये तेरहवेंगुरणस्थान के प्रथमसमय में मोक्ष नहीं होता । Jain Education International ननु रत्नत्रयस्यैव मोक्षहेतुत्वसूचने । कि वार्हतः क्षणाध्वं मुक्ति सम्पादयेत तत् ॥ ४१ ॥ सहकारिविशेषस्या पेक्षणीयस्य भाविनः । तदेवासरवतोनेति स्फुटंकेचित्प्रचक्षते ॥ ४२ ॥ कः पुनरसौ सहकारी सम्पूर्णेनापि रत्नत्रयेणापेक्ष्यते ? यदभावात्तन्मुक्तिमहंतो न सम्पादयेत् इति चेत् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918