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"मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । ( त० सू० १०1१ )
अर्थात् — मोहकमें के क्षय हो जाने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होता है ओर इन कर्मों का क्षय हो जाने से केवल ( क्षायिक ) ज्ञान होता है ।
इस सूत्र से भी सिद्ध है कि मोह के क्षय होजाने से क्षायिक ( यथाख्यात ) चारित्र होता है और उसके पश्चात् क्षायिक ( केवल ) ज्ञान होता है । यदि क्षायिकचारित्र में तरतमता मानी जायगी तो क्षायिकज्ञान क्षायिकदर्शन और क्षायिकवीयं में भी तरतमता का प्रसंग आ जायगा और इससे अरहंत भगवान व सिद्ध भगवान में गुणकृत भेद हो जायगा, किन्तु इन दोनों में गुणकृत भेद नहीं है। श्री वीरसेनस्वामी ने धवल पु० १ पृ० ४७ पर कहा है'अस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् ।' अर्थात् यदि अरिहंत और सिद्धों में गुरणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होभो, क्योंकि वह न्यायसंगत है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
जह्मा वु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोदि परिणमदि ।
अण्णत्तं णाणगुणो तेणं दु सो बंधगो भणिदो ॥ १११ ॥ समयसार
टीका - स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यं माविरागसद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात् ।
गाथा अर्थ क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण के कारण फिर से भी अन्यरूप से परिणमन करता है इसलिये कर्मों का बंधक कहा गया है ।
टोकार्थ -- वह ज्ञानगुण यथाख्यातचारित्र प्रवस्था से नीचे अवश्यंभावी राग के सद्भाव होने से बंध का कारण ही है ।
इससे सिद्ध होता है कि यथाख्यातचारित्र में राग-द्वेष आदि कषाय नहीं हैं, अर्थात् पूर्ण वीतरागरूप होने से उसमें वीतरागता की तरतमता नहीं है । चारित्र का घातक अथवा चारित्र में तरतमता उत्पन्न करनेवाले चारित्रमोहनीयकर्म का उदय है । चारित्रमोहनीयकर्म की सर्वप्रकृतियों के उदय का अभाव होने से यथाख्यातचारित्र में सरतमता सम्भव नहीं है ।
कुछ का कहना है कि यदि यथाख्यातचारित्र में तरतमता न होती तो तेरहवेंगुणस्थान के प्रथमसमय में सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र क्षायिक अर्थात् पूर्ण हो जाने से तत्काल मोक्ष हो जाना चाहिये था । अन्यथा 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र मोक्षमार्गः यह सूत्र बाधित होता है । किन्तु उनका ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि भी विद्यानन्द आचार्य ने श्लोकवार्तिक में कहा है कि क्षायिकसम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र हो जाने पर भी काल आदि की प्रपेक्षा रहती है, इसलिये तेरहवेंगुरणस्थान के प्रथमसमय में मोक्ष नहीं होता ।
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ननु रत्नत्रयस्यैव मोक्षहेतुत्वसूचने ।
कि वार्हतः क्षणाध्वं मुक्ति सम्पादयेत तत् ॥ ४१ ॥ सहकारिविशेषस्या पेक्षणीयस्य भाविनः ।
तदेवासरवतोनेति स्फुटंकेचित्प्रचक्षते ॥ ४२ ॥
कः पुनरसौ सहकारी सम्पूर्णेनापि रत्नत्रयेणापेक्ष्यते ? यदभावात्तन्मुक्तिमहंतो न सम्पादयेत् इति चेत् ।
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