Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व
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अर्थात - संयममार्गणा के अनुवाद से प्रमत्तसंयत से लेकर प्रयोगकेवलीगुणस्थान तक संयतजीव होते हैं । "स पुनः परमोत्कृष्टो भवति वीतरागेषु यथाख्यातचारित्रसंज्ञकः । आरातीयेषु संयतासंयतादिषु सूक्ष्मसाम्पराकान्तेषु प्रकर्षाप्रकर्षयोगी भवति ।" रा. वा. १।१।३
अर्थात् वीतरागियों में अर्थात् ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवेंगुणस्थानों में वह चारित्र परमोत्कृष्ट होता है, जिसका नाम यथाख्यातचारित्र है । उससे नीचे संयतासंयत से सूक्ष्म साम्पराय - दसवेंगुरणस्थान तक विविधप्रकार का तरतमचारित्र होता है ।
शंका - जैनसंदेश २२ अप्रैल १९६५ पृ० ३१ कालम १ में लिखा है "सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का क्षय बारहवें गुणस्थान के अन्त्य समय तक हो जाता है । जिससे क्षायिकचारित्र प्रगट हो जाता है ।" क्या संपूर्ण मोहनीय कर्म का क्षय बारहवेंगुणस्थान के अन्तसमय में होता है या वसवेंगुणस्थान के अन्त समय में होता है । यदि सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का क्षय दसवेंगुणस्थान के अन्तिमसमय में होता है तो श्री पं० भगवानदासजी जैन शास्त्री डोंगरगढ़ वालों ने बारहवेंगुणस्थान के अन्तिमसमय में क्यों लिखा ?
समाधान — दसवें गुणस्थान के अन्तिमसमयतक मोहनीयकर्म अर्थात् सूक्ष्मलोभ का उदय है और बारहवेंगुणस्थान के प्रथम समय में मोहनीयकर्म की सत्ता नहीं है । अतः द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा दसवेंगुणस्थान के अन्तिमसमय में संपूर्ण मोहनीयकर्म का क्षय होता है, किन्तु पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा बारहवेंगुणस्थान के प्रथमसमय में सम्पूर्ण मोहनीयकमं का क्षय होता है। कहा भी है
"विणास विसय दोणिणया होंति उप्पावाणुच्छेदो अणुव्वादाणुच्छेदो चेदि । तस्य उत्पादाणुच्छेदो नाम व्यट्ठियो । तेण संतावत्थाए चेव विणासमिच्छवि, असंते बुद्धिविसयं चाइवकंतभावेण वयणगोयराइक्कंते अभावववहाराणुववत्तीदो | अणुप्पादाणुच्छेदोणाम पज्जवट्ठियो गयो । तेण असंतावश्याए अभावववएस मिच्छदि, भावे उबलब्भमागे अभावत्तविरोहादो। ण च पडिसेहविसओ भावो भावत्तमल्लियइ, पडिसेहस्त फलाभावप्यसंगादो ।
( धवल पु० १२ पृ० ४५७-५८ )
अर्थ - विनाश के विषय में दो नय हैं उत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेद का अर्थ द्रव्यार्थिकनय है, इसलिए वह सद्भाव की अवस्था में ही विनाश को स्वीकार करता है, क्योंकि असत् और बुद्धिविषयता से प्रतिक्रान्त होने के कारण वचन के अविषयभूत पदार्थ में अभाव का व्यवहार नहीं बन सकता । अनुत्पादानुच्छेद का अर्थ पर्यायार्थिकनय है । इसीकारण वह प्रसत् अवस्था में प्रभाव संज्ञा को स्वीकार करता है, क्योंकि इस नय की दृष्टि में भाव की उपलब्धि होने पर प्रभावरूपता का विरोध है और प्रतिषेध का विषयभूत भाव भावस्वरूपता को प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर प्रतिषेध के निष्फल होने का प्रसंग आता है ।
'बारहवें गुणस्थान के अन्त्यसमय तक संपूर्ण मोहनीयकर्म का क्षय हो जाता है। यह कथन तो किसी भी अपेक्षा ठीक नहीं है । श्री पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि टीका में लोभ संज्वलनरूप मोहनीयकर्म का नाश दसवेंगुणस्थान के अन्तिमसमय में स्वीकार किया है । वे वाक्य इस प्रकार हैं
"लोभ संज्वलनः सूक्ष्मसाम्परायान्ते यात्यन्तम् । [१०।२ ] प्रागेव । मोहं क्षयमुपनीयान्तर्मुहूर्त क्षीणकषायव्यपदेशमवाप्य ततो युगपज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां क्षयं कृत्वा केवलमवाप्नोति इति । लोभ-संज्वलनं तनुकृत्य सूक्ष्मसाम्परायक्षपकत्वमनुभूय निरवशेषं मोहनीयं निर्मूलकषायं कषित्वा क्षीणकषायतामधिरुह्य । [9019] ”
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