Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
समाधान-श्री सिद्ध भगवान की भक्ति पूजा के समान ही श्री अरहंत भगवान की पूजा भक्ति की जाती है और दोनों की परमात्मा संज्ञा भी है। क्या पूजनभक्ति की समानता के कारण श्री अरहंत भगवान श्री सिद्ध भगवान के समान हो जायेंगे ? श्री अरहंत भगवान सकल परमात्मा हैं और चार अधातिया कर्मों से बंधे हुए होने के कारण सलेप हैं, किन्तु श्री सिद्ध भगवान निकल परमात्मा हैं और कर्मों से सर्वथा निर्लेप हैं । कहा भी है
"किन्तु सलेपनिर्लेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेव इति सिद्धम् ।" ( धवल पु० १ पृ० ४७ )
अर्थ-सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा और देशभेद की अपेक्षा श्री अरहंत और सिद्ध इन दोनों परमेष्ठियों में भेद है।
यद्यपि पू० आर्यिका और पू० मुनिराज की नवधाभक्ति में भेद नहीं है, तथापि उन दोनों में वस्त्रसहित और वस्त्ररहितपने का इत्यादि अनेक भेद हैं ।
शंका-क्या आयिकाको मुनिराज के बराबर समान अधिकार हैं? यदि समानाधिकार हैं तो आपस में मुनियों के समान मुनि और आर्यिका वंदना प्रतिवंदना क्या सशास्त्र है ? फिर पूर्ण रूप से मुनियों के समान नवधा भक्ति कैसे?
समाधान-आर्यिका और मुनिराज के अधिकार कथंचित् समान हैं कथंचित् असमान हैं। जिसप्रकार परुषों में उत्कृष्टव्रत मुनि के हैं उसीप्रकार स्त्रियों में उत्कृष्टव्रत प्राधिका के हैं। आगम में स्त्रियों के लिये नग्नता की आज्ञा नहीं है इसलिये आयिका को साटिका धारण करनी पड़ती है । मूलाचार में मुनिराज और प्रायिका माताजी दोनों को संयमी कहा है और दोनों का समाचार बतलाया है अतः दोनों की समानरूप से नवधाभक्ति होने में कोई बाधा नहीं है।
शंका-मुनियों को आयिका नमोस्तु करती हैं । मायिकाजी के प्रति ऐलक को क्या करना और कहना चाहिये ?
समाधान-ऐलक को प्रायिका के लिए वन्दामि कहना चाहिये । क्षुल्लक, ऐलक के उपचार से भी महाव्रत नहीं है एक देशव्रत है, किन्तु आर्यिका के उपचार से महाव्रत हैं ।
-जं. ग. 16-12-71/VII, IX/ आदिराज अण्णा , गोडर
उपांगहीन को प्रायिका-दीक्षा शंका-हरिवंशपुराण सर्ग ४९ में लिखा है कि यशोवा की लड़की जिसकी नाक कंस ने चपटी कर दी थी आयिका हुई, समाधिमरण करके स्वर्ग गई । ग्वाले को पुत्री और अंगहीन क्या आयिका हो सकती है ?
समाधान-यशोदा उच्चकुल वाली थी। तभी तो श्री कृष्णजी का उसके यहाँ पालन-पोषण हुआ। ग्वाले शूद्र या नीचकुल वाले होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है । श्री प्रवचनसार ग्रंथ के माधार से यह बतलाया गया है कि शूद्र को मुनिदीक्षा या आर्यिका की दीक्षा नहीं दी जा सकती है।
कंस ने नाक चपटी कर दी थी। नाक चपटी कर देने से अङ्गहीन नहीं होता। नाक अङ्ग नहीं है, किन्तु उपाज है। अतः नाक चपटी होना भी भायिका की दीक्षा में बाधक नहीं है। प्रत्येक को समाधिमरण की भावना रखनी चाहिये।
-ज'. ग. 12-12-63/IX/ प्रकाराचन्द
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