Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 856
________________ ८१२ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार। दिया कि तुझको धर्मलाभ हो। भील ने पूछा कि हे प्रभो ! धर्म क्या है ? मुनिराज ने भील को धर्म का स्वरूप निम्नप्रकार बतलाया "निवृत्तिमधुमांसादि सेवायाः पापहेतवः । स धर्मस्तस्य लाभो यो धर्म-लाभः स उच्यते ॥ श्री मुनिराज ने कहा कि मधु, मांस प्रादि का सेवन करना पाप का कारण है। अतः मद्य, मांस, मधु प्रादि का त्याग धर्म है। उस धर्म की प्राप्ति होना धर्मलाभ है। आज बहुत से जैनियों की स्थिति उस भील से अधिक कम नहीं है। मद्य, मांस, मधु की प्रवृत्ति प्रतिदिन बढती जारही है। जिस पदार्थ का नाम सुनने मात्र से भोजन में अंतराय हो जाती थी माज उन्हीं पदार्थों का खल्लमखल्ला सेवन होने लगा है। श्री समाधिगुप्त मुनिराज ने खदिरसाल भील को जो धर्म का स्वरूप बतलाया था, उसी उपदेश की आज अत्यन्त आवश्यकता है। मनुष्य को सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लि विशुद्धिलब्धि की आवश्यकता है (लब्धिसार गाथा ५)। विशुद्धिलब्धि के बिना सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती, किन्तु कुछ का यह मत है कि मद्य, मांस तथा सप्तव्यसन का सेवन करते हुए भी सम्यक्त्वोत्पत्ति में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि मद्य, मांस प्रादि-अचेतन पदार्थ हैं। जड़ शरीर के द्वारा इनका सेवन आत्मा में सम्यक्त्वोत्पत्ति को नहीं रोक सकता। आज इसी मत का प्रचार है कुछ विद्वान् भी इसी मत का उपदेश देने लगे हैं और जनता भी इसी मत को पसन्द करने लगी है, क्योंकि इस मत में त्याग का उपदेश नहीं है। इस नवीन मत वाले पुरुषों में उस मत के पूर्व संस्कार हैं, जिस मत में बुहारी देते हुए केवलज्ञान की उत्पत्ति मानी गई है, क्योंकि उनके अनुसार शारीरिक क्रिया का प्रात्म-परिणामों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता इसलिये बहारी देना केवलज्ञानोत्पत्ति में बाधक नहीं है। दिगम्बर जैन पार्ष ग्रन्थों में तो इसप्रकार उपदेश पाया जाता है। मननदृष्टिचरित्रतपोगुणं, दहति वन्हिरिवंधनमूजितं । यविह मद्यमपाकृतमुत्तमैनं परमस्ति नो दुरितमहत् ॥ ५१४॥ सुभाषित रत्नसंवोह जिसप्रकार अग्नि इंधन के ढेर को जला डालती है, उसीप्रकार जो पीया गया मद्य वह सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान, सम्यकचारित्ररूपी गुणों को बात की बात में भस्म कर डालता है। उसका सेवन करना बहुत अहितकर है। उससे बड़ा इस संसार में कोई भी पाप नहीं है। इसलिये जो उत्तम पुरुष हैं वे इसका सर्वथा त्याग कर देते हैं। धर्मद्र मस्यास्तमलस्य मूलं, निर्मूलमुन्मूलितमंगमाजां। शिवादिकल्याणफलप्रवस्य मांसाशिना स्यान्न कथं नरेण ॥५४७॥ [ सु. र. सं० ] अर्थ-जो मांस भोजी हैं, पेट के वास्ते जीवों के प्राण लेने वाले हैं वे लोग मोक्ष स्वर्गादि के सुखों को देने वाला ऐसा धर्म, उस धर्म की जड़ जो सम्यग्दर्शन, उसको नाश करने वाले हैं। मद्य, मांस आदि का सेवन करनेवाले को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अतः सर्वप्रथम मद्य, मांसादि के त्याग का उपदेश होना चाहिए, किन्तु इस नवीन मत के अनुसार वे शास्त्र तो कुशास्त्र हैं जिनमें मद्य, मांसादि पदार्थों के त्याग का उपदेश है, क्योंकि परपदार्थों से आत्मा की हानि-लाभ मानना इस नवीन मत की दृष्टि में मिथ्यात्व है। जिस समय तक आचरण शुद्ध नहीं होगा उससमय तक मात्र शुद्धात्मा की कथनी से मनुष्य को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । पीत, पद्म, शुक्ल, इन तीन शुभलेश्याओं के होने पर ही मनुष्य को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो सकती है। अतः सम्यग्दर्शनोत्पत्ति के लिये आचरण विशुद्धि का उपदेश अत्यन्त आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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