Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
जितनी यह बात सत्य है कि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र निरर्थक हैं। उतनी ही यह बात भी सत्य है कि चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान मनुष्य के लिये निरर्थक हैं। इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य तथा श्री अकलंकवेव ने इसप्रकार कहा है
गाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च सणविहणं । संजमहीणो य तवो जचरइ णिरत्ययं सव्वं ॥५॥( सील पाहड़)
अर्थ-सम्यग्ज्ञान व सम्यग्दर्शन तो होय और चारित्र न होय तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान निरर्थक हैं। मुनिलिंग तो ग्रहण कर लिया और सम्यग्दर्शन न होय तो मुनिलिंग ग्रहण करना निरर्थक है । सम्यग्दर्शन तो होय पर संयम न होय अर्थात् असंयतसम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवाले का तप निरर्थक है ।
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हताचाज्ञानिना क्रिया। धावनू किलान्धको बग्धः पश्यन्नपि च पङ गुलः ॥१॥ (रा. वा. ११)
श्री पं० मक्खनलालजी कृत अर्थ-चारित्र के बिना ज्ञान किसी काम का नहीं है, जब ज्ञान किसी काम का नहीं तब उसका सहचारी दर्शन भी किसी काम का नहीं है। जिस तरह बन में आग लग जाने पर उसमें रहने वाला लंगड़ा मनुष्य नगर को जानेवाले मार्ग को जानता है। इस मार्ग से जाने पर मैं अग्नि से बच सकूगा' इस बात का उसे श्रद्धान भी है, परन्तु चलनेरूप क्रिया नहीं कर सकता इसलिये वहीं जलकर नष्ट हो जाता है। उसीप्रकार ज्ञान (मौर दर्शन )
भी निरर्थक है । जिसप्रकार बन में आग लग जाने पर उसमें रहने वाला अन्धा जहां-तहां दौड़ना रूप क्रिया करता है, किन्तु उसको नगर में जानेवाले मार्ग का ज्ञान नहीं है और न उसको यह श्रद्धान ही है कि अमुक मार्ग नगर में पहुँचाने वाला है, इसलिये वह वहीं जल कर नष्ट हो जाता है।
इस दृष्टान्त द्वारा श्री अकलंकदेव ने यह बतलाया कि चारित्र के बिना असंयतसम्यम्हष्टि नष्ट हो जाता है और सम्यग्दर्शन के बिना मात्र क्रिया करने वाला मनुष्य भी नष्ट हो जाता है।
-जें. ग. 5-12-68/VI/ .......... चारित्र को पूर्णता कब होती है ? शंका-रत्नत्रय की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होती है या उससे पूर्व ?
समाधान-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की रत्नत्रयसंज्ञा है। सम्यग्दर्शन का घातक दर्शनमोहनीयकर्म है, ज्ञान का घातक ज्ञानावरणकर्म है और सम्यकचारित्र का घातक चारित्रमोहनीयकर्म है। दर्शनमोहनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोहनीय इन तीनों कर्मों के क्षय हो जाने पर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अर्थात् रत्नत्रय की पूर्णता हो जाती है, क्योंकि इन तीन गुणों के पूर्ण अविभागपरिच्छेद व्यक्त हो जाते हैं । इन तीनों कर्मों का अभाव तेरहवेंगुणस्थान के प्रथमसमय में हो जाता है अतः रत्नत्रय की पूर्णता तेरहवेंगुणस्थान के प्रथमसमय में हो जाती है।
यद्यपि तेरहवेंगुणस्थान में योग है, किन्तु वह रत्नत्रय या चारित्र का विघातक नहीं है । श्री अकलंकदेव ने भी राजवातिक अध्याय १ सूत्र १ वार्तिक ३ की टीका में कहा है
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