Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 849
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८०५ समाधान - सत्यमहाव्रत में असदभिधान का अर्थात् अप्रशस्तवचनों का त्याग अर्थात् निवृत्ति हो गई है। तथापि सत्य वचन में प्रवृत्ति देखी जाती है । कहा भी है "अनृताऽदत्तादानपरित्यागे सत्यवचन दत्तावान क्रियाप्रतीतेः । " ( राजवार्तिक ७।१।१३ ) अर्थ -- महाव्रत में अनृतवचन तथा अदत्तादान का परित्याग होने पर भी सत्यवचन तथा दत्तादानक्रिया में प्रवृत्ति देखी जाती है । "परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्तिः । तत्रासमर्थस्य कुशलेषु वृत्ति समितिः ।" रा. वा. ९१५५९ परिमितकाल के लिये सर्वयोग का निग्रह करना गुप्ति है । गुप्ति पालन करने में असमर्थ होने पर आत्मकल्याण में प्रवृत्ति करना समिति है । "ननु सत्यवचनं भाषासमितावन्तगंभितं वर्तत एव किमर्थमत्र तद्ग्रहणम् ? सायुक्तं भवता, भाषासमितौ प्रवर्तमानो यतिः साधुषु असाधुषु च भाषाव्यापारं विदधन हितं मितञ्च ब्रूयात, अन्यथा असाधुषु अहितभाषसे च रागानर्थदण्डदोषो भवेत्, तदा तस्य का भाषा समितिः न कापीत्यर्थः । सत्यवचने स्वयं विशेषः सन्तः प्रव्रज्यां प्राप्तास्तवभक्ताः वा ये वर्तन्ते तेषु यद्वचनं साधु तत् सत्यम्, तथा च ज्ञानचारित्रादिशिक्षले प्रचुरमपि अमितमपि वचनं वक्तव्यम् । इतीदृशो भाषासमिति सत्यवचनयोविशेषो वर्तते ।" तत्त्वार्थवृत्ति ९६ । सत्यवचन तो भाषासमिति में गर्भित हो जाता है इन दोनों में क्या भेद है ? भाषासमिति वाला मुनिसाधु र असाधु दोनोंप्रकार के पुरुषों में हित और परिमित वचतों का प्रयोग करेगा। यदि वह असाधु पुरुषों में अहित और अमित भाषण करेगा तो राग और अनर्थदण्ड दोष हो जाने के कारण भाषासमिति नहीं बनेगी । "सत्य बोलने वाला" साधुनों में और उनके भक्तों में सत्यवचन का प्रयोग करेगा, किन्तु ज्ञान और चारित्र आदि के शिक्षणकालमें प्रचुर अमित वचनों का भी प्रयोग कर सकता है । भाषामिति वाला असाधु पुरुषों ( लौकिकपुरुषों ) में भी वचन का प्रयोग कर सकता है किन्तु उसके वचन मित ही होंगे । सत्यवचन वाला ( सत्य महाव्रतधारी ) साधु पुरुषों में ही वचन का प्रयोग करेगा, किन्तु उसके वचन अमित भी हो सकते हैं । यह भाषासमिति और सत्यवचन में अन्तर है । वचनगुप्ति में तो वचनयोग का निग्रह है अतः साधु या असाधु पुरुषों से वचन का प्रयोग नहीं कर सकता है । "समिदि महत्व। गुरुवयाई संजमो । समईहि विणा महत्वयासुध्या विरई ।" [ धवल पु. १४ पृ. १२ ] अर्थ-समितियों के साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियों के बिना महाव्रत और प्रणुव्रत विरति कहलाते हैं । Jain Education International - जै. ग. 25-3-71 / VII / र. ला जैन मुनिराज समुद्रवत् निस्तरंग तथा प्रदीपवत् निष्कम्प होते हैं शंका-उत्तरपुराण पर्व ७६ श्लोक ३ में बताया कि - 'धर्मदचि मुनिराज समुद्र के समान निस्तरंग और प्रदीप के समान निष्कंप थे। पर न तो समुद्र निस्सरंग है और न दीपक निष्कम्प | ऐसी हालत में इस उलटे उदाहरण का क्या तात्पर्य है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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