Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 847
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [८०३ समाधान-यद्यपि कषाय के मंदतर उदय व प्रभाव में प्रज्ञापरीषह कार्यरूप नहीं होती है, किन्तु ज्ञानावरणकर्म के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से वहाँ पर प्रज्ञापरीषह का कथन किया है । अ० ९ सूत्र १० व ११ की सर्वार्थसिद्धि टीका में कहा भी है-'जिसप्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव के सातवींपृथ्वी का सामर्थ्य निर्देश किया जाता है उसीप्रकार ज्ञानावरणकर्म की सामर्थ्य का निर्देश करने के लिये शक्ति मात्र की विवक्षा करके परीषह कही गई है । ज्ञानमद का प्रभाव होने पर भी द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा यहाँ परीषह का उपचार किया गया है । -जं. ग. 26-2-70/IX/रो. ला. मित्तल परीषह जय के प्रभाव में मो कदाचित् मुनित्व रहता है शंका-परीषह जय मुनि के २८ मूलगुणों में नहीं है । कहा मी है-"१२ तप और २२ परीषह ये साधु के उसर गुण हैं।" मूलाचार एवं मयचक्र गा० ३३६ पृ० १६८-६९; अतः किसी काल में मुनि कोई परीषह न भी जीत सके तब भी मुनित्व का नाश होता है या नहीं ? । समाधान-मुनित्व का नाश नहीं होता। -पलाचार 4-7-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर परीषह शंका-परीषह बाईस से ज्यादा भी हो सकती हैं या नहीं ? इसके अधिकारी श्रावक तथा मुनि दोनों हो सकते हैं या नहीं ? 'वध परीषह' में वर्णित 'वध' उपसर्गजय सिद्ध होता है, परीषहजय नहीं । अगर इसे ही परीषह माना जाय तो उपसर्ग किसे कहेंगे? नग्नत्व जब मूलगुणों में आ गया तो फिर इसे परीषह में रखने से क्या फायदा? आयिका इस परीषह का जय कैसे करेगो ? अतः इसकी जगह 'लज्जा परीषह' जैसा व्यापक नाम रख दिया जाता तो क्या आपत्ति थी? इससे परिचर्या, वैयावृत्य सेवा आदि में भी प्रेरणा मिलती। 'याचना' को 'अयाचना' और 'अरति' को 'रति' परीषह कहा जाय तो क्या हानि है ? इनके लक्षणों से भी यही प्रकट है। 'सत्कार पुरस्कार' जसे दो बड़े नाम रखने की क्या जरूरत थी, आदर जैसा कोई एक ही छोटा और व्यापक नाम रखा जा सकता था और से भी इसका ग्रहण 'अलाभ परीषह' के व्यापक अर्थ में मजे से हो सकता है, फिर इसे अलग से देने में क्या प्रयोजन है ? इस विषय में एक बात और है, लक्षण से इसका नाम 'असत्कार-पुरस्कार' प्रकट होता है। क्या 'प्रज्ञा' और 'बज्ञान' परीषह दोनों में से किसी एक से काम नहीं चल सकता था? आयिकादि के लिये 'स्त्री परीषह' क्या 'पुरुष परीषह' के नाम से होगी ? ब्रह्मचर्यवत की तरह इसका 'काम परीषह' या 'रतिपरीषह' जैसा कोई व्यापक नाम क्यों न रखा ? 'अरति परीषह' के व्यापक अर्थ में भी यह परीषह गमित हो सकती थी। शीत ( सर्दी) उष्ण (गर्मी) की तरह वर्षापरीषह क्यों न रखी? इस विषय में और भी अनेक बात कही जा सकती हैं पर कथनवृद्धि से छोड़ी जाती हैं। जितनी आपत्तियां उठाई गई हैं उन्हें प्रमाणपूर्वक स्पष्टतया निरसन करेंगे। समाधान-परीषह बाईस होती हैं विशेष के लिए श्री रा. वा० ९।९ पर अन्तिम दो तीन वार्तिक व टीका देखनी चाहिए। उपसर्ग भी वध में गभित है अथवा बाइसों परीषह उपसर्ग हैं। अथवा उपसर्ग पूर्व वैर के कारण होता है और वधपरीषह धर्म द्वेष अथवा घृणा के कारण होता है । नाग्न्यपरीवह जय-जातरूपधारणं नारन्यं (त. रा.वा.) अर्थात निविकार जातरूप का धारण करना मोक्ष का कारण है। ( टीका ) समस्त परिग्रह का त्याग करने पर भी मन में विकार उत्पन्न न होने देना इसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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