Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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करुणाभाव या जीवदया भी धर्म है
शंका- एकमत - जीवों के बचाने में व जीवों को दया पालन करने में मिथ्यात्व और हिंसा मानता है, और ऐसा ही उपदेश देता है। क्या यह मत, दिगम्बर जैनधर्म के सर्वथा विपरीत नहीं है ? दिगम्बर जैनधर्म का मूल सिद्धांत अहिंसा परमोधर्मः है। रात्रिभोजन नहीं करना, पानी छानकर पीना, मद्य, मांस, मधु, पाँच उदम्बरफलों का सेवन न करना आदि भावकव्रत जीवों की रक्षा करने और उनकी दयापालन करने के लिये तो हैं। फिर जीवों की वया पालने में मिथ्यात्व और हिंसा बताना क्या दि० जैनधर्म के अनुसार ठीक है ?
समाधान - जीवदया धर्म है । पद्मनंदिपञ्चविंशतिका श्लोक ७ में कहा है- 'धर्मो जीवदया ।' तथा श्लोक १३ में कहा है - जिसमें उत्तमादिपात्रों को दान दिया जाता है तथा करुणा से दान दिया जाता है ऐसा गृहस्थ आश्रम विद्वानों के द्वारा पूजनीक होता है । श्री षट्खंडागम-धवल सिद्धान्तग्रंथ पुस्तक १३, पृ० ३६२ पर भी कहा - 'करुणाए जीब सहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहदो' अर्थात् 'करुणा जीव का स्वभाव है अतएव उससे कर्मजनित मानने में विरोध आता है।' वस्तुस्वभाव ही धर्म है । अतः करुणा जीव का धर्म है । स्वभाव कर्मजनित नहीं होता है । विभाव कर्मजनित होता है । अतः कषाय का मंद उदय करुणा को कारण । ऐसा कहना भी ठीक नहीं है ।
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अतः उपर्युक्त आगमानुसार 'जीवदया', 'करुणाभाव' धर्म है ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
किन्तु जो एकान्त से ऐसी अहं बुद्धि करता है कि मैं परजीव को जिला सकता हूँ, बचा सकता हूँ पर जीव के कर्मोदय उसमें किंचित् भी कारण नहीं हैं उस जीव की ऐसी एकांत अहंकार बुद्धि मिथ्यात्व है । जिसका विस्तार पूर्वक कथन भी समयसार बंधाधिकार में है ।
- जै. सं. 23-10-84 / V / इ. ला. छाबड़ा, लश्कर
सप्त व्यसन
१. परस्त्री सेवी का त्यागपूर्वक उसी भव में मोक्षगमन २. एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पर प्रभाव पड़ता है
शंका-क्या परस्त्रीगामी तथा मद्य, मांसभक्षण करनेवाला तद्भवमोक्षगामी हो सकता है या नहीं ?
समाधान - परस्त्रीसेवन करनेवाला तथा मद्य, मांसभक्षण करनेवाला उसी भव में उनका त्याग कर, सम्यग्दर्शन प्राप्त करके महाव्रतादिरूप चारित्र के द्वारा उसी मनुष्यभव से मोक्ष जा सकता है, किन्तु जिस समय तक परस्त्री, मद्य, मांस श्रादि का सेवन है उस समय तक सम्यग्दर्शन की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
परस्त्री, मद्य, मांस यद्यपि परद्रव्य हैं तथापि उनके सेवन से आत्मपरिणामों में इस प्रकार की मलिनता उत्पन्न होती है कि सम्यग्दर्शनरूपी श्रात्मगुण प्रकट नहीं हो सकता । ऐसा एकान्त नहीं है कि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पर प्रभाव न पड़ता हो । समयसार गाथा २८३, २८४, २८५ में द्रव्य और भाव से अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है। उसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है- " अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान का वास्तव में द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का उपदेश है, वह उपदेश द्रव्य और भाव के निमित्त नैमित्तिकत्व को प्रकट करता है । इसलिये यह निश्चित हुआ कि परद्रव्य निमित्त है और श्रात्मा के रागादिभाव नैमित्तिक हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य श्रप्रत्याख्यान का कर्तृत्व के निमित्तरूप का उपदेश निरर्थक
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