Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ७२३
समाधान - प्रातं व रौद्र परिणामों को 'ध्यान' संज्ञा नहीं दी गई है, किन्तु आर्त या रौद्र परिणाम के विषयभूत किसी भी द्रव्य या पर्याय में एकाग्रता का होना प्रातं या रौद्रध्यान है, क्योंकि ध्यान का लक्षण 'एकाग्र चिन्ता निरोध' वहीं पर पाया जाता है। प्रध्यान और रोहध्यान ये दोनों अशुभ ध्यान है।
-जै. ग. 23-965 / IX / ब. पन्नालाल
विषयानन्दी रौद्र ध्यान में कुशीलपाप गर्भित है
शंका- रौद्रध्यान चार प्रकार का बतलाया गया उनमें चार पाप आ गये। पांचवें पाप कुशील सम्बन्धी ध्यान क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान- रोद्रध्यान के चार भेद निम्न प्रकार हैं
"हंसाऽनृतस्य विषयसंरक्षोभ्यो रौद्रमविरत देशविरतयोः ।" तत्त्वार्थ सूत्र
हिंसा, सत्य, चोरी ओर विषयसंरक्षण के लिये सतत चिन्तन करना रौद्र ध्यान है। इनमें चौथे भेद विषयसंरक्षण में कुशील व परिग्रह दोनों पाप गर्भित हैं। कुशील भी स्पर्शन इन्द्रिय का विषय है।
—जै. ग. 10-8-72/X/ र. ला. जैन, मेरठ निदान शल्य, निदान श्रार्तध्यान व निदानबन्ध में अन्तर
शंका- निदान से क्या तात्पर्य लेना चाहिये ? निदान शल्य, निदान आध्यान निवानबन्ध और कांक्षा इनमें परस्पर क्या अन्तर है ?
समाधान - निदान का अर्थ है बन्धन के उपयोग में आनेवाली रस्सी । शल्य का अर्थ है पीड़ा देनेवाली वस्तु । जब शरीर में कोटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ा का भाव है, वह शल्य शब्द से लिया गया है । भोगों की लालसा निदान शल्य है । सर्वार्थ सिद्धि ७ १८ । भोगों की आकांक्षा के प्रति आतुर हुए व्यक्ति के आगामी विषयों की प्राप्ति के लिए जो मनः प्रणिधान का होना अर्थात् संकल्प तथा निरन्तर चिन्ता करना निदान नाम का चौथा आतंष्यान है। स. सि. ९।३३ ।
"उभयलोक विषयोपभोगाकाङ्क्षा ।" रा. वा. ६।२४ ।
इस लोक और परलोक दोनों लोकसम्बन्धी विषयों के उपभोग की आकांक्षा यह सम्यग्दर्शन का दोष है । निदान अर्थात् आगामी पर्यायसम्बन्धी आकांक्षा के अनुसार गति का बन्ध हो जाना निदान बन्ध है । यद्यपि इनमें अन्तर बहुत सूक्ष्म है, तथापि इन लक्षणों के द्वारा इनका पारस्परिक अन्तर जाना जाता है । - जै. ग. 10-8-72/X/ र. ला. जैन, मेरठ
धर्मध्यान
शंका-क्या धर्मध्यान बन्ध का कारण है ? यदि धर्मध्यान बन्ध का कारण नहीं है तो आतंध्यान भी बन्ध का कारण नहीं होना चाहिए।
समाधान - जो जीव परिणाम बन्ध के कारण होते हैं वे संसार के हेतु होते हैं और जो जीवपरिणाम संवर- निर्जरा के कारण होते हैं वे मोक्षहेतु होते हैं । मो० शा० अध्याय ९ सूत्र २९ इस प्रकार है-परे मोक्षहेतू
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