Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । चौथे से सातवें गुणस्थान तक प्रवृत्ति तथा निवृत्ति दोनों हैं शंका-क्या चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीवों का मुक्ति दरवाजा बन्द है ? क्या इन गुणस्थानों में मात्र प्रवृत्ति ही है ? क्या निवृत्ति नहीं है ?
समाधान-छठे और सातवें गुणस्थानवर्ती जीव महाविरति होते हैं। वे हिंसा, झूठ, चोरी परिग्रह पौर अब्रह्म इन ५ पापों से निवृत्त होते हैं, क्योंकि व्रत का लक्षण ही पंच पापों से निवृत्तिरूप है, जैसा कि मोक्षशास्त्र में कहा भी है
"हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव्रतम् ॥१॥" हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से बुद्धिपूर्वक निवृत्त होना-विरक्त होना व्रत है। इस प्रकार छठे और सातवें गुणस्थानों में निवृत्ति है। पांचवें संयमासंयमगुणस्थान में हिंसा आदि पाँच पापों से एकदेश निवृत्ति है ।
___ "देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ हिंसा आदि पापों से एकदेश विरक्त अर्थात् निवृत्त होना अणुव्रत है और हिंसा आदि पापों से सर्वतः विरक्त होना महाव्रत है । अणुव्रत पालनेवाला अगारी अर्थात् पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक है।
पंच पापों से बुद्धिपूर्वक निवृत्त होने के कारण ही पांचवें, छठे, सातवेंगुणस्थानों में प्रतिसमय गुणश्रेणी निर्जरा होती रहती है।
चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि जीव पंच पापों से तथा पंचेन्द्रियों के विषयों से बुद्धिपूर्वक एकदेश भी निवृत्त नहीं है अतः उसके प्रतिसमय गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती है मात्र सम्यक्त्व प्राप्ति के समय अथवा अनन्तानबंधीकषाय को विसंयोजना के समय तथा दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा के समय गुणश्रेणीनिर्जरा होती है। वह यथा सम्भव सम्यक्त्व के २५ दोषों से निवृत्त है।
चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवां आदि गुणस्थान परम्परा मोक्ष के कारण हैं । साक्षात् कारण तो चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय का रत्नत्रय है।
-नं. ग. 8-1-76/VI/रो. ला. मित्तल
मरण के भेद शंका-आपने लिखा कि इस ( आचार्य श्री शान्तिसागर ) तरह का समाधिमरण सम्यग्दृष्टि के ही होता है। कृपया लिखें कि द्रव्यलिंगी के मरण से इस मरण में क्या विशेषता है जिससे हम सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को पहचान कर सकें?
समाधान-द्रव्यलिंगी अनेक प्रकार के होते हैं । शंकाकार का अभिप्राय शायद मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी से है। मिथ्याडष्टि के समाधि होती ही नहीं अतः मिथ्यादृष्टि के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र का अभाव होने से बालबालमरण होता है, किन्तु श्री तपोनिधि आचार्य शान्तिसागर महाराज का तो पण्डितमरण हमा है। कहा भी है
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