Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादि निर्मितम् ।
तथा पूर्व मुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः ॥ ७९७ ॥ पृ. ३००॥ श्रीमान् पं० कैलाशचन्दजी ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है जैसे पाषाण वगैरह में अंकित जिनेन्द्र भगवान की प्रतिकृति पूजने योग्य है, लोग उसकी पूजा करते हैं, वैसे ही प्राजकल के मुनियों को भी पूर्वकाल के मुनियों की प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए। इसीप्रकार धर्म रत्नाकर पृ० १२६ श्लोक ६३ तथा प्रबोधसार पृ० १९७, श्लोक ३४ में कहा है। इससे यह भी अर्थग्रहण किया जा सकता है कि द्रव्यलिंगीमुनि को भावलिंगीमुनि की प्रतिकृति मानकर सम्यग्दृष्टि पूजन कर लेवे तो कोई हानि नहीं है। अथवा द्रव्यलिंगी और भावलिंगी की पहचान होना कठिन है क्योंकि एक भावलिंगी मुनि क्षुद्रभव से भी अल्पकाल के लिये द्रव्यलिंगी मुनि हो गया पुनः भावलिंगी हो गया और इतने सूक्ष्मकाल का परिणमन परोक्षज्ञान द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता; अत: यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक मुनि भावलिंगी है तथा अमुक द्रव्यलिंगी है। विद्वान् इम शंका पर आगम प्रमाण सहित विशेष विचार करने की कृपा करें।
-जें. ग. 14-5-64/IX|.पं. सरदारमल
द्रव्यसंयम एवं भावसंयम क्रमशः अनंत एवं ३२ बार हो सकते हैं
शंका-गो.क. गाथा ६१९ में लिखा है कि सकलसंयम ३२ बार से अधिक धारण नहीं करता, इसके बाद वह नियम से मोक्ष जायगा। अन्यत्र यह लिखा है कि अनेक बार मुनिव्रत धारण किया है कि उसके पिच्छिकाओं का ढेर लगाया जाय तो मेरु पर्वत से भी बड़ा होगा। फिर अधिक से अधिक ३२ बार संयम धारणकर मोक्ष जायगा यह कैसे सम्भव है ?
समाधान-जो मनुष्य मुनिव्रत तो धारण कर लेता है, किन्तु आत्मबोध की ओर दृष्टि नहीं है उस जीव को समझाने के लिये यह उपदेश है कि सम्यग्दर्शन के बिना इस जीव ने अनेक बार मात्र द्रव्यसंयम धारण किया, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति नहीं हई। भवपरिवर्तन में बतलाया है कि एक भवपरिवर्तन के काल में यह जीव ग्रंवेयकों में और उपरिम चार स्वर्गों में असंख्यातबार उत्पन्न होता है, क्योंकि १८ सागर की आयु से ३१ सागर की प्रायुतक क्रम से एक-एक समय आयुस्थिति बढ़ते हुए उत्पन्न होता है। उपरिम चार स्वगों में तथा नवग्रं वेयकों में मिथ्याइष्टि मुनिलिंग धारण किये बिना उत्पन्न नहीं हो सकता है। अतः यह कथन भावसंयम से रहित मात्र द्रव्यसंयम की अपेक्षा से ठीक है।
गो. क. गाथा ६१९ में उत्कृष्ट रूप से जो ३२ बार संयम ग्रहण का कथन है वह भावसंयमसहित द्रव्यसंयम की अपेक्षा से कथन है। इन दोनों कथनों में परस्पर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि भावसंयमसहित और भावसंयम रहित का भेद है । संयम शब्द से भावसंयमशून्य द्रव्यसंयम का ग्रहण नहीं होता है। कहा भी है-'संयमनं संयमः । न द्रव्यसंयमः संयमस्तस्य 'सं' शब्देनापादितत्वात।'
अर्थ-संयम करने को संयम कहते हैं। संयम का इस प्रकार लक्षण करने पर द्रव्यसंयम अर्थात् भावसंयम शन्य द्रव्यचारित्र संयम नहीं हो सकता है, क्योंकि संयम शब्द में ग्रहण किये गये 'सं' शब्द से उसका निराकरण कर दिया है।
-जे.ग. 21-8-69/VII/ ब्र. हीरालाल
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