Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ७७९
दृढ़ता वज्रवृषभनाराचादि तीनसंहनन । धृति-मनोबल क्षुधादिकों से व्याकुल न होना इत्यादि गुणों से जो साधु युक्त है तथा दीक्षा से और आगम से जो बलवान है अर्थात जो तपोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध है। आचार पालन में और सिद्धान्त जानने में जो चतुर है। ऐसे मुनि को जिनेश्वर ने अकेले विहार के लिए सम्मति दी है। [ फलटन से प्रकाशित मूलाचार पृ० ८८ ]
आचार्यवर्य श्री वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी आचारसार में इसीप्रकार कहा है
जानसंहननस्वांत भावनाबलवन्मुनेः। चिरप्रवजितस्यकविहारस्तु मतः श्र ते ॥ २७॥ एतवगुणगणापेतः स्वेच्छाचाररतः पुमान् । यस्तस्यैकाकिता मा भून्मम जातु रिपोरपि ॥२८॥ ( अधि० २)
जो मुनि बहुत दिन के दीक्षित हैं और ज्ञान, संहनन तथा अपने अंतःकरण की भावना से बलवान हैं ऐसे ही मुनि एकलविहारी हो सकते हैं। जिनमें ज्ञान, संहनन, अंतःकरण का बल आदि गुण नहीं है, ऐसे साधारण मनियों को, चाहे वे मेरे रिपु क्यों न हों, कभी भी अकेले विहार नहीं करना चाहिये। श्री आचार्यवर्य सकलकोति ने भी मूलाचारप्रदीप में इसीप्रकार कहा है
सर्वोत्कृष्टतया द्वादशांगपूर्वाखिलार्थवित् । सद्वीर्यधतिसत्त्वाद्यस्त्रयादि संहननोबलो ।। ५४ ।। एकत्वभावनापन्नः श्रद्धभावोजितेन्द्रियः । चिरप्रवृजितो धीमान् जिताशेषपरिषहः ॥५५॥ इत्याद्यन्यगुणग्रामोमुनिः संमतो जिनः ।
श्रतेनकविहारी, हि नान्यस्तद्गुणवजितः॥५६॥ जो मुनि अत्यन्त उत्कृष्ट होने के कारण ग्यारहअंग और चौदहपूर्व के पाठी हैं, श्रेष्ठवीर्य, श्रेष्ठधैर्य और श्रेष्ठशक्ति को धारण करते हैं, जो प्रथम तीनसहननों को धारण करनेवाले हैं, बलवान हैं जो सदा एकत्वभावना में तत्पर रहते हैं शुद्ध भावों को धारण करते हैं जो जितेन्द्रिय हैं, चिरकाल के दीक्षित हैं बुद्धिमान् हैं समस्त परिषहों को जीतनेवाले हैं तथा और भी अन्य समस्त गुणों से सुशोभित हैं ऐसे मुनियों को शास्त्रों में एकलविहारी होने की आज्ञा है। जो इन गुणों से रहित हैं उनको भगवान जिनेन्द्रदेव ने एकलविहारी होने की आज्ञा नहीं दी है।
कोई सम्व-समत्थो सगुरुसूदं सम्वमागमित्ताणं । विणएणुवक्कमित्ता पुच्छइ सगुरु पयत्तेण ॥ २४ ॥ [समाचाराधिकार तुज्झं पादपसाएण अण्णमिच्छामि गंतुमायदणं । तिणि व पंच व छा वा पुच्छावो एत्थ सो कुणइ ॥२५॥ एवं आपुच्छित्ता सगवरगुरुणा विसज्जिओ संतो।
अप्पच उत्थो तदिओ विदिओ वा सो तदोणीदी ॥२६॥ मुलाचारः फलटन धैर्य, विद्या, बल, उत्साह आदि गुणों से समर्थ ऐसा कोई मुनिरूपी शिष्य अपने गुरु से संपूर्ण श्रतों का शास्त्रों का अध्ययन करके मन, वचन और शरीर के द्वारा विनयकर उनके पास जाता है तथा प्रमाद छोड़ अपने गरु से विनती करता है। हे गुरु ! प्रापकी अनुज्ञा से अन्य आयतन को प्रर्थात् सर्वशास्त्र पारंगत और चारित्रपालन
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