Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 831
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [७८७ अर्थ-जो रत्नत्रय समस्त देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रों से पूजित है, मुक्ति का अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है। उस रत्नत्रय को साधुजन शरीर की स्थिति रहने पर ही धारण करते हैं। उस शरीर की स्थिति उत्कृष्ट भक्ति से जिन गृहस्थों द्वारा दिये गये अन्न से रहती है। उन गुणवान सद्गृहस्थों का धर्म भला किसे प्रिय न होगा? अर्थात सभी को प्रिय होगा। यद्यपि संयम की रक्षा के लिये साधु आहार लेते हैं तथापि उस आहार को खड़े होकर पाणि पात्र में लेकर सोधन के पश्चात् ही लेते हैं। श्री कुंदकुद आचार्य ने प्रवचनसार में कहा भी है वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिविसयणमवंतवणं ठिदि-भोयणमेगभत्तं च ॥२०॥ एवे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमतो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥२०९॥ अर्थ-व्रत, समिति, इंद्रियरोध, केशलोंच, षट् आवश्यक, अचेलत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, खड़े-खड़े भोजन, एकबार पाहार, यह वास्तव में श्रमणों के मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं, उनमें प्रमत्त होता हुआ साधु छेदोपस्थापक होता है। यदि किन्हीं कारणों से साधु खड़े होकर पारिण-पात्र में सोधकर भोजन नहीं कर सकें तो वे संयम की रक्षार्थ भोजन का त्याग कर देते हैं। किंतु आहारवत् श्वासोच्छ्वास के लिये इसप्रकार के कोई नियम नहीं हैं जिससे कि साधू संयम की रक्षा के लिये श्वासोच्छवास का निरोध करे। 'भोजन' भोग है। भोग के त्याग के निमित्त मनि यथाशक्ति भोजन का त्याग करते रहते हैं किन्तु श्वासोच्छ्वास भोग नहीं है, अत: मुनि उसका त्याग नहीं करते। उपवास आदि में भोजन का त्याग तो होता है, किंतु श्वासोच्छ्वास का त्याग नहीं होता। काय और कषाय को भले प्रकार कृश करना सल्लेखना है। बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का, उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात कृश करना सल्लेखना है। कहा भी है - 'सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना । कायश्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना।' सर्वार्थसिद्धि ७.२२ आहारं परिहाय्य, क्रमशः स्निग्धं विवद्ध येत्पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा, खरपानं पूरयेत्क्रमश: ॥१२७॥ खरपानहापनमपि, कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारमनास्तन त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥१२८॥ रत्न. क. धा. अर्थ-सल्लेखनाधारी व्यक्ति अन्न के भोजन को छोड़कर क्रमशः दूध और छाछ के पान को बढ़ावे। दूध व छाछ को छोड़कर कांजी और गर्मजल को बढ़ावे। कांजी और गर्मजल को भी त्यागकर फिर शक्ति से उपवास को करके सर्वप्रकार व्रत संयम आदिक में यत्न से पंच नमस्कार मंत्र का जाप करता हुआ शरीर छोड़े। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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