Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान -- मूलाधार की संस्कृत टीका में भी इसका विशेष कथन नहीं है। किन्तु ज्ञात ऐसा होता है कि यह काल की मर्यादा सिद्धभक्ति से लेकर भोजन के अंत तक समझनी चाहिये। मूलाचार प्रदीप पृ० ६७ दोपहर की सामायिक के पश्चात् और सूर्य अस्त होने से तीन मुहूर्त पूर्व तक भी आहारकाल है ।
- जै. ग. 31-7-67/ VII / जयन्तीप्रसाद
अन्तराय
शंका- मुनि को भोजन में बीज आए तो अन्तराय है या मुख में आए तब अन्तराय है । हाथ में बीज आए तो अपने हाथ से बीज निकाल सकता है या नहीं ?
समाधान- मूलाचार-पिण्डशुद्धि अधिकार गाथा ६५ की टीका में श्री वसुनन्दिश्रमण ने लिखा हैकणकुण्डबीजकंदफलमूलानि परिहारयोग्यानि ।
यदि परिह न शक्यन्ते, भोजनपरित्यागः क्रियते ॥
अर्थ -- परिहार करने योग्य ऐसे करण, कुण्ड, बीज, कन्द, फल-मूल को यदि आहार से अलग करना अशक्य हो तो आहार का त्याग कर देना चाहिए ।
उपर्युक्त कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि मुनि के भोजन में बीज आ जाए और उसका अलग करना अशक्य हो तो अन्तराय है । मुख में बीज आ जाने पर तो अन्तराय है ही । हाथ में बीज आ जाय और यदि शक्य हो तो उसको निकाल सकता है ।
- जैन गजट / 11-1-62 / VIII
मुनि श्रन्धा हो जाने पर क्या करे ?
शंका-मुनि महाराज धन्धे
समाधान
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हो गए हैं। समाधिमरण लेने की शक्ति नहीं है तो क्या करना चाहिए ? - मुनिदीक्षा ग्रहण करते समय जिन व्रत नियमों व मूल गुरणों को धारण किया था उनका प्राजन्म निर्वाह करना आवश्यक है। संयम रूपी रत्न खोकर जीना निरर्थक है। अतः संयमसहित मरण करना उत्सर्ग मार्ग है। मुनिधर्म को छोड़ देना यह अपवाद मार्ग है। धन्धे हो जाने के बाद ये दो मार्ग है। तीसरा कोई मार्ग नहीं है । अन्धे होकर मुनिवेष को न छोड़कर मुनि की भाँति ही आहार-विहारादि चर्या करना अधोगति का कारण है। इससे उस मुनि का तो प्रकल्याण होगा ही, किंतु अधर्म की परिपाटी का कारण होने से अन्य जीवों का भी कल्याण होगा। जैनधर्म की अप्रभावना होगी।
-जै. ग. 11-1-62 / VIII
अपघात से मृत साधु के पण्डित मरणपने का प्रभाव
शंका- क्या अपघात करनेवाले मुनि के पंडितमरण के ( प्रायोपगमन, इंगिनीमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण ) तीन भेदों में से कोई भेद सम्भव है ?
समाधान - संयम के विनाश के भय से श्वासोच्छ्वास का निरोध करके मरे हुए साधु के प्रायोपगमन, इंगिनि तथा भक्तप्रत्याख्यान में से किसी भी भेद में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि आत्मस्वरूप की प्राप्ति के निमित्त, जिसने अंतरंग और बहिरंगपरिग्रह का त्यागकर दिया है, ऐसे साधु के जीवन और मरण की प्राशा के बिना
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