Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व प्रोर कृतित्व ]
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घाणी में पिल जावे पर यदि प्रत्याख्यानकषाय का उदय है तो द्रव्यलिंगी है। जिस मुनि के इतना क्रोध आजाए कि अशुभ तेजस शरीर द्वारा ९ योजन चौड़े और १२ योजन लम्बे स्थान के जीवों को जला देवे - वह भी भावलिंगी मुनि है, क्योंकि अशुभ तैजस समुद्घात छठे गुणस्थान में ही होता है । पुलाक, वकुश कषायकुशील ये सब भावलिंगी मुनि हैं ।
बाह्य क्रियाओं पर द्रव्यलिंग और भावलिंग निर्भर नहीं हैं ।
- पत्राचार 18-7-80/ / ज. ला. जैन, भीण्डर शंका- द्रव्यलिंगी मुनि का अन्तर्भाव क्या पुलाक, बकुश आदि मुनियों में होता है ?
समाधान - मिध्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनियों का अन्तर्भाव पुलाक, बकुश आदि मुनियों में नहीं होता है, क्योंकि पुलाक, बकुश आदि सम्यग्दृष्टि होते हैं। कहा भी है-दृष्टिरूपसामान्यात् ॥९॥ सम्यग्दर्शनं निर्ग्रन्थरूपं च भूषावेशायुधविरहितं तत्सामान्ययोगात् सर्वेषु हि पुलाकादिषु निर्ग्रन्यशब्दो युक्तः । अन्यस्मिन् सरूपेऽतिप्रसंग इति चेतू, न; दृश्टघभावात् ॥११॥ स्यादेतत् यदि रूपं प्रमाणमन्यस्मिन्नपि सरूपे निर्ग्रन्यव्यपदेशः प्राप्नोतीति; तन्न; कि कारणम् ? दृष्टयभावात् । दृष्टया सह यत्र रूपं तत्र निर्ग्रन्यव्यपदेशः न रूपमात्र इति । रा० वा० ९।४७। वार्तिक ९, ११ पृ. ६३७ ॥
अर्थ – सम्यक्त्व तथा भेष की समानता होने से || ६ || सम्यग्दर्शन भी पुलाकादि मुनियों में पाया जाता है। और आभूषण वस्त्र युक्त भेष तथा आयुध आदि परिग्रह से सभी पुलाकादि मुनि रहित हैं । अर्थात् सम्यक्त्व तथा बाह्य परिग्रह से रहितपना सभी मुनियों में समान है । अतएव सामान्य दृष्टि से सभी निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं । प्रश्नदूसरे भेषधारी में भी अतिव्याप्ति का दोष ना जावेगा ? उत्तर—ऐसा मत कहो, क्योंकि सम्यग्दर्शन का प्रभाव है || ११|| फिर यहाँ पर यह शंका होती है कि यदि नग्न दिगम्बर रूप ही दि० जैनधर्म में प्रमाणरूप है तो यह नग्नपना तो अन्य मतों में भी पाया जाता है ? उत्तर - यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस परमहंसा दि स्वरूप के मानने वालों में सम्यग्दर्शन का प्रभाव है । जहाँ पर सम्यक्त्वपूर्वक ही निर्ग्रन्थपना है वहीं पर निर्ग्रन्थसुनि का व्यवहार होता है । भेषमात्र को निर्ग्रन्थ नहीं कह सकते ।
द्रव्यलिंगो मुनि के भाव - शुभ श्रथवा श्रशुभ
शंका- मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि के मंदतमकषाय, उच्चकोटि का व्यवहारचारित्र तथा एकादशांग तक ज्ञान हो सकता है; वह नवें ग्रैवेयक जाने योग्य पुण्य बन्ध कर लेता है तब क्या ये भाव अशुभ ही हैं ? क्या मिथ्यादृष्टि के शुभभाव नहीं होते ? शुभ और अशुभ भावों के लक्षण क्या हैं ?
- जैनसन्देश 13-6-57 / ... .... / .... ?
समाधान - हिंसा, चोरी ओर मैथुन प्रादिक अशुभ काययोग हैं। असत्य, कठोर और असभ्य वचन आदि अशुभवचनयोग हैं। मारने का विचार, ईर्ष्या और डाह यादि अशुभमनोयोग है। तथा इनसे विपरीत शुभकाययोग, शुभवचनयोग और शुभमनोयोग हैं। जो योग शुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह शुभयोग है और जो योग अशुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह अशुभयोग है सर्वार्थसिद्धि अध्याय ६ सूत्र ३ । इस कथन का यह अभिप्राय है कि हिंसादिरूप परिणाम अशुभोपयोग और इससे विपरीत परिणाम शुभोपयोग है । किन्तु यह सूत्र ३ आस्रव के प्रकरण में है अतः यहाँ पर कषाय की तीव्रतारूप संक्लेश स्थानों को अशुभ परिणाम और कषाय की मन्दतारूप विशुद्धस्थानों को शुभपरिणाम कहा गया है। कहा भी है- 'साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय आदि शुभप्रकृतियों के कारणभूत कषायस्थानों को विशुद्ध स्थान कहा है । और असाता, अस्थिर, अशुभ,
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