Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
"सुह-सुद्ध परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाववत्सीदो ।
अर्थ-यदि शुभ
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और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं
सकता है ।
शुभ परिणामों से मोहनीयकर्म का क्षय सिद्ध हो जाने पर भी यदि कोई एकान्तवादी शुभ परिणामों से मोहनीय का क्षय स्वीकार नहीं करता तो चतुर्थ - आदि गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का तो प्रभाव होने से मोहनीय के क्षय का प्रभाव होगा। मोहनीय के क्षय के प्रभाव में चतुर्थादि गुणस्थानों में क्षायिकसम्यक्त्व के प्रभाव का प्रसंग श्रा जायगा । क्षायिकसम्यक्त्व के अभाव में क्षपकश्रणी के अभाव का प्रसंग आ जायगा ।
श्री पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि टीका अ० ९ सूत्र ३७ में श्रेणी-आरोहण से पूर्व धर्मध्यान और दोनों श्रेणियों में शुक्लध्यान कहा है ।
धर्मध्यान का फल सातिशय पुण्यबन्ध, संवर, निर्जरा व भावमोक्ष है
शंका - धर्मध्यान क्या संवर, निर्जरा का कारण है या मात्र पुण्य-बन्ध का कारण है ?
समाधान -- धर्मध्यान सकषाय सम्यग्डष्टिजीव के होता है । सकषायजीव के कषाय के सद्भाव के कारण बन्ध होता है । कहा भी है
—. ग. 30-9-65 / 1X / ब्र. सुखदेव
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्युगलानावत्ते स बन्धः ।" [ त० सू० ८२ ]
अर्थात् - कर्मोदय के कारण कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है बह
बन्ध है ।
किन्तु, धर्मंध्यान अंतरंग तप है और तप से संवर व निर्जरा होती है । इसीलिये धर्मंध्यान मोक्ष का कारण है । यदि धर्मध्यान से संवर- निर्जरा न होती तो धर्मध्यान मोक्ष का कारण भी न होता है। कहा भी है
"तपसा निर्जरा च ॥३॥ प्रायश्चित्तविनयव्यावृत्त्यस्वाध्याय व्युत्सर्ग-ध्यानात्युत्तरम् ॥ २० ॥ परे मोक्षहेतु ॥ २९ ॥ तत्वार्थसूत्र अध्याय ९ ।
अर्थ - तप से संवर और निर्जरा होती है । प्रायश्चित्त विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युस्सर्ग और ध्यान यह छहप्रकार का श्राभ्यन्तरतप है । अन्त के दो ध्यान अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु अर्थात् कारण हैं । श्री वीरसेनाचार्य ने धर्मध्यान का फल निम्नप्रकार कहा है
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"अक्खवसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जराफलं च । खवएसु पुण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मपदेसजिरणफलं सुहकम्माण मुक्कस्सा शुभाग विहाणफलं च । अतएव धर्म्मादनपेतं धम्यं ध्यानमिति सिद्धम् ।" [ धवल पु० १३, पृ० ७७]
अर्थ - प्रक्षपक जीवों को देवपर्यायसम्बन्धी विपुलसुख मिलना उसका फल है और गुणश्रेणी में कर्मों की निर्जरा होना भी उसका फल है, तथा क्षपक जीवों के तो असंख्यातगुणश्रेणीरूप से कर्म-प्रदेशों की निर्जरा होना और शुभकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होता उसका फल है । अतएव जो घर्म से अनपेत है वह धर्मध्यान है ।
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