Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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भ्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-तत्स्वार्थसूत्र अ० ९ सूत्र ३७ में आदि के दो शुक्लध्यान (पृथक्त्ववितर्क और एकत्त्ववितर्क ) पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवली के कहे हैं, किन्तु यह उत्कृष्ट की अपेक्षा कथन है । जघन्य से पाँच समिति, तीन गुप्ति के प्रतिपादक आगम के जाननेवाले के भी आदि के शुक्लध्यान हो जाते हैं । इस प्रकार कहा भी है
अतं-पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः। कषायकुशोलानिर्ग्रन्थाश्चतुर्दशपूर्वधराः। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु । वकुशकुशीलनिग्रन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः स्नातका अपगत ताः केवलिनः॥ स० सि० अ० ९ सूत्र ४७ ।।
अर्थ-पुलाक, वकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनियों के उत्कृष्ट की अपेक्षा से एक अक्षर घाट दशपूर्व का श्रुतज्ञान होता है । जघन्य को अपेक्षा पुलाक के प्राचारवस्तु का; बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ मुनियों के अष्टप्रवचन मात्र ( पाँच समिति तीन गुप्ति ) के प्रतिपादक आगम का ज्ञान होता है ।
नोट-कषायकुशील मुनि छठे अप्रमस संयत से दसवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक के मुनि होते हैं । ग्यारहवें और बारहवें ( उपशान्त तथा क्षीणमोह ) गुणस्थानवर्ती मुनि निर्ग्रन्थ होते हैं।
-जं. सं. 27-9-56/VI/ ध. ला. सेठी, खुरई शुक्लध्यान के लिए आवश्यक संहनन शंका-क्या शुक्लध्यान होने के लिये वज्र वृषभनाराचसंहनन होना आवश्यकीय हैं या तीन संहनन जो उत्तम माने गए हैं उन तीनों संहननवालों के शुक्लध्यान हो सकता है क्या ?
समाधान-प्रथमशक्लध्यान उपशमश्रेणी में भी होता है। उपशमश्रणी तीनों उत्तम संहनन से चढ़ सकता है, क्योंकि ग्यारहवें उपशान्तमोह-गुणस्थान में वज्रनाराच और नाराचसंहनन की उदयव्युच्छित्ति होती है। कहा भी है
वेदतिय कोहमाणं मायासंजलणमेव सुहुमते ।
सुहुमो लोहो संते वज्जणारायणा रायं ।। गो• क० गाथा २६९ ॥ अर्थात-अनिवृत्तिकरणगुणस्थान के सवेदभाग में "तीनवेद", अवेदभाग में संज्वलनक्रोध, मान, माया ये तीन' इसप्रकार कुल छह प्रकृतियाँ उदय से व्यच्छिन्न होती हैं। सूक्ष्मसाम्परायगूगास्थान के अन्तसमय में संज्वलनलोभ उदयव्युच्छित्र होता है। ग्यारहवें उपशान्त मोहगुणस्थान में वज्रनाराच और नाराच इन दोनों संहनन की उदयव्यूच्छित्ति है, किन्तु क्षपकश्रेणी में केवल एक वज्रवृषभनाराचसंहनन का ही उदय रहता है।
-जं. सं. 27-9-56/VI/ ध. ला. सेठी, खुरई शंका-क्या शुक्लध्यान प्रथम उत्कृष्ट तीनसंहनन वालों के अतिरिक्त अन्तिम तीन होनसंहनन में भी होता है ?
समाधान-श्रेणी चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों ( उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी ) में शुक्लध्यान होता है ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ सूत्र ३७ ) । धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों के होता है ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ सूत्र ३६ )। इससे सिद्ध है कि शुक्लध्यान आठवेंगुणस्थान से पूर्व नहीं होता। अर्धनाराच आदि अन्तिमतीन हीनसंहनन की उदय-व्युच्छित्ति सातवें अप्रमत्तगुणस्थान में हो जाती है ( गोम्मटसार कर्मकांड गाथा २६८ )। अतः शुक्लध्यान अन्तिमतीन हीनसंहननवाले जीवों के संभव नहीं है।
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