Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
संयत वह है जिसके पाँच महाव्रत होते हैं अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह का पूर्णरूप से त्याग होता है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है-
पंचमहवयजुत्तो तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ । furiथमोक्खमग्गो सो होदि हु बंदणिज्जो य ||२०|| ( सूत्र पाहुड )
जो पाँच महाव्रत और तीनगुप्तिसहित है वह संयत होता है और वही निग्रंथमोक्षमार्ग है और वही वन्दनीय है ।
अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित निग्रंथ होता है। निग्रंथ के ही वीतरागता होती है । इस अपेक्षा से श्रुतकेवली और गणधर को अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित कहा है ।
- जै. ग. 24-4-69 / V / 2. ला. जैन
उपाध्याय व तकेवली में भेद
शंका-उपाध्याय और धतकेवली में क्या अन्तर है ?
समाधान
-चौदह विद्यास्थान के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं । वे संग्रह, अनुग्रह आदि गुणों को छोड़कर पहले कहे गये आचार्य के समस्त गुणों से युक्त होते हैं वे उपाध्याय परमेष्ठी हैं । धवल १ पृ० ५०
चोदसव्वमहोय हिमहिगम्म सिवस्थिओ सीलंधराण वत्ता होइ मुणीसो
अर्थ —– जो साधु चौदहपूर्वरूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात् परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं तथा मोक्ष के इच्छुक शीलंधरों अर्थात् मुनियों को उपदेश देते हैं उन मुनीश्वरों को उपाध्यायपरमेष्ठी कहते हैं ।
सिवत्थीणं । उवज्झाओ ।
यह उपाध्याय का विशेष स्वरूप है । उपाध्याय का सामान्य स्वरूप इस प्रकार है
जो रयणत्तयजुसो णिच्चं धम्मोव देसले णिरदो ।
सो उवज्झाओ अप्पा जविवरवसहो णमो तस्स ||५३|| द्रव्यसंग्रह
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अर्थ - जोरत्नत्रय से सहित है, निरंतर धर्म का उपदेश देने में तत्पर है तथा मुनिश्वरों में प्रधान है, वह आत्मा उपाध्याय है । उसके लिए नमस्कार हो ।
इससे सिद्ध है कि उपाध्याय का मुख्यस्वरूप अन्य मुनियों को धर्मोपदेश देना है । यदि वे उपाध्याय श्रुतकेवली हैं तो यह उनकी विशेषता है । जितने भी श्रुतकेवली होते हैं वे सब उपाध्याय होते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है । आचार्य व साधु भी श्रुतकेवली हो सकते हैं ।
- जै. ग. 4-7-66 / IX / रतनलाल एम कॉम.
उपाध्याय में भी २८ मूलगुण होते हैं
शंका- साधुपरमेष्ठी में २८ मूलगुण होते हैं, जब कि उपाध्याय परमेष्ठी में २५ गुण होते हैं। क्या साधु के मूलगुण उपाध्याय में नहीं होते हैं ?
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