Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ७७१
राजमुद्रा (चपरास) को धारण करने वाला अत्यन्तहीन व्यक्ति भी लोक में मान्य होता है, उसी तरह द्रव्यलिङ्गी नग्न दिगम्बर मुद्रा को धारण करनेवाला साधारण पुरुष भी मान्य होता है, यह शास्त्र का निर्णय है ॥३॥ द्रव्यलिंग होने पर भी यदि भावलिङ्ग नहीं है तो वह द्रव्यलिंग परमार्थ की सिद्धि करनेवाला नहीं है इसलिये द्रव्यलिङ्गपूर्वक भालिंग धारण करना चाहिये । इसके विपरीत जो गृहस्थवेष के धारक होकर भो 'हम भावलिङ्गी हैं क्योंकि दीक्षा के समय हमारे अन्तःकरण में मुनिव्रत धारण करने का भाव था' ऐसा कहते हैं उन्हें मिथ्याष्टि जानना चाहिये, क्योंकि वे विशिष्ट जिनलिङ्ग के विरोधी हैं, उसमें द्वेष रखने वाले हैं। युद्ध की इच्छा करते हुए कायर की तरह स्वयं नष्ट होते हैं और दूसरों को भी नष्ट करते हैं। मुख्य व्यवहार धर्म के लोपक होने के कारण वे विशिष्ट पुरुषों द्वारा दण्डनीय हैं । अष्टपाहड़ प्र. २०८ महावीरजी से प्रकाशित ।
समयसारग्रंथ में ऐसा कहीं पर भी कथन नहीं है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि छठेगुणस्थान में नहीं आता है । छठेगुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि होते हैं।
"सम्माइट्ठी खइयसम्माइट्ठी असंजदसम्माइटि-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ॥१४५॥
-धवल पु०१ पृ० ३९६ अर्थ-सामान्यसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुरपस्थान से लेकर अयोगिकेवली नामक चौदहवेंगुणस्थान तक होते हैं।
द्वादशांग के इस सूत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि को छठागुणस्थान होता है।
उपशम, क्षयोपशम या क्षायिक इन तीनों में से कोई भी सम्यग्दृष्टि हो जब वह संयम को धारण करता है तो वह एकदम सातवेंगुणस्थान में जाता है। वहां एक अन्तर्मुहूर्त काल ठहरकर फिर छठेगुणस्थान में आता ही है। फिर छठेगुणस्थान से सातवें में और सातवेंगुणस्थान से छठेगुणस्थान में हजारों बार भ्रमण करने के पश्चात् श्रेणी चढ़ सकता है।
मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन बारह कषायों के उदयाभाव में ही छठागुणस्थान होता है। इन चौदह प्रकृतियों में से यदि किसी एक प्रकृति का भी उदय है तो छठागुणस्थान संभव नहीं है। अत: छठेगूणस्थान में मुनि के द्रव्यलिंग व भावलिंग दोनों होते हैं। क्योंकि द्रव्यलिंग के बिना न तो मुनि संज्ञा हो सकती है और न भावलिंग हो सकता है।
जिस मुनि के उपयूक्त चौदह प्रकृतियों में से एक या अधिक प्रकृतियों का उदय प्रा जाता है तो उसका भावलिंग समाप्त हो जाता है और वह मात्र द्रव्यलिंगी मुनि हो जाता है। ऐसे मुनि अर्थात् द्रव्यलिंगीमुनि पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें इन पांचगुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में हो सकते हैं और वे मरकर नवअवेयक तक ही जा सकते हैं । इससे ऊपर अर्थात् अनुदिश या अनुत्तर विमानों में उत्पन्न नहीं हो सकते हैं ।
छहढ़ाला में जो यह लिखा है-'मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।' यहां पर अनन्तबार' विपुल संख्या का वाचक है।
चौथेगुणस्थान से चौदहवेंगुणस्थान तक सब जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं। चौथे व पाँचवें गुणस्थान में जो मुनि हैं वे सम्यग्दष्टि होते हुए भी मात्र द्रव्यलिंगी मुनि हैं। छठे से चौदहवें गुणस्थान तक जो मुनि हैं वे सब सम्यग्दृष्टि हैं, उनके द्रव्यलिंग के साथ-साथ भावलिंग भी है। मिथ्याष्टिजीव के प्रथम गुणस्थान होता है।
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