Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार।
आत्मा रागादि का अकारक ही है। जब तक वह निमित्तभूत द्रव्य का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता तब तक नैमित्तिकभूत भावों का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता।' इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द ने तथा श्री अमृतचंद्र आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया कि द्रव्य प्रत्याख्यान (द्रव्यलिंग) पूर्वक ही भावप्रत्याख्यान (मावलिंग) होता है।
श्री वीरसेन आचार्य ने धवल पु.१पृ. ३३३ पर भी कहा है-'वस्त्रसहित के भावसहित भावसंयम के मानने पर, उनके भावग्रसंयम का अविनाभावी वस्त्रादिक का ग्रहण नहीं बन सकता है।' अर्थात् वस्त्रादि त्याग किये (द्रव्यलिंग धारण किये) बिना संयम (भावलिग) नहीं हो सकता।
मोक्षमार्ग में मात्र द्रव्यलिंग कार्यकारी नहीं। भावलिंग होने पर ही द्रव्यलिंग की सार्थकता है, क्योंकि भावशून्य क्रिया से फल की प्राप्ति नहीं होती, ऐसा कल्याण मन्दिर स्तोत्र श्लोक ३८ में श्री कुमुदचन्द्र आचार्य ने कहा है।
भावपाहड़ गाथा २--'भावो य पढमलिंग' में आये हुए 'य' पद से द्रयलिंग धारण करके भावलिंग धारण करता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये (श्री श्रतसागर सूरिकृत संस्कृत टीका)। किन्तु श्री पं० जयचन्दजी के सामने 'भावोहि पढमलिंग' ऐसा पाठ था। अत: उन्होंने गाथा २ का यह अर्थ किया है-'भाव है सो प्रथमलिंग है याही ते हे भव्य ! तू द्रश्यलिंग है ताहि परमार्थ रूप मति जाण, जातै गुण और दोष इनका कारणभूत भाव ही है। ऐसा जिन भगवान कहें हैं।' यद्यपि द्रव्यलिंग पूर्व में हो जाता है, किंतु उस द्रव्यलिंग की सार्थकता भावलिंग होने पर होती है अतः भावलिंग को प्रथम कहा है। जैसे सम्यग्दर्शन से पूर्व तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, क्योंकि यथार्थ तत्त्वज्ञान से सम्यग्दर्शन यथार्थ (श्रद्धान) की उत्पत्ति नहीं होती है, अयथार्थ तत्त्वज्ञान से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती, तथापि सम्यग्दर्शन के होने पर उस ज्ञान को 'सम्यग्ज्ञान' संज्ञा प्राप्त होती है। इसीलिये प्रथम सम्यग्दर्शन को कहा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र में प्रथम 'सम्यग्दर्शन' पश्चात् सम्यग्ज्ञान कहा है। इसी प्रकार द्रव्यलिंग और भावलिंग के विषय में जानना।
भावपाहुड़ गाथा ३४ के विशेषार्थ में श्री पं० जयचन्दजी ने कहा है कि 'द्रव्यलिंग पहले धारना, ऐसा न जानना जो याहीतै सिद्धि है।
भावपाहुड़ गाथा ७३-'भावेण होइ णग्गो.........' में 'भावेन' शब्द का अर्थ 'परमधर्मानुरागलक्षणजिनसम्यक्त्वेन' और 'रणग्गो' शब्द का अर्थ 'वस्त्रादि परिग्रह रहित' संस्कृत टीकाकार श्री श्रतसागर आचार्य ने किया है । अर्थात् जिसके परमधर्मानुरागरूप भाव होंगे उसके ही वस्त्रत्याग के भाव होंगे और वस्त्रत्यागरूप भाव होने पर वस्त्रादि परिग्रहरहित नग्न अवस्था होगी।
श्रीमान पं० जयचन्दजी ने इस गाया ७३ का अर्थ इस प्रकार किया है-पहले मिथ्यात्व आदि दोषनिकू छोड़ि और भावकरि अन्तरंग नग्न होय एकरूप शुद्ध आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करे, पीछे मुनि द्रव्यकरि बालिग जिन आज्ञा करि प्रगट करे यह मार्ग है।' यहाँ पर यह बतलाया गया है कि जो केवल देखा-देखी ख्यातिपजा लाभ की चाह से बाह्यलिंग धारण कर लेते हैं, वे उपसर्ग,परीषह आ जाने पर बाह्यलिंगसे भी भ्रष्ट हो सकते हैं, किंतु जिन्होंने सम्यक्त्वपूर्वक संसार देह भोगों का स्वरूप विचार कर मुनि होने का निर्णय किया है (ये भाव ही अन्तरंग की नग्नता हैं ) वे ही जिन-आज्ञा के अनुसार द्रव्यलिंग धारण करते हैं। इन भावों के बिना जो द्रव्यलिंग है वह जिन आज्ञा अनुसार नहीं है।
इन आगम प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि प्रथम वस्त्रत्याग के भाव होते हैं पश्चात् वस्त्रत्यागादिरूप द्रव्यलिंग होता है। उसके पश्चात् भावलिंगरूप सातवाँगुणस्थान होता है। बारहभावना मादिरूप भाव कारण है,
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