Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
७६२ ]
[ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
पुरुष, स्त्री, पुत्र आदि सब भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं । पुरुष मोह के कारण स्त्री को अपनी पत्नी मानता है और बच्चों को अपने पुत्र मानता है, किन्तु मोह के प्रभाव हो जाने पर न कोई किसी की स्त्री, न पुत्र, न पिता, न माता, न पति; क्योंकि प्रत्येक अपनी भिन्नसत्ता को लिये हए एक भिन्नद्रव्य है। मोह के कारण सब सम्बन्ध था, मोह के अभाव में कोई भी सम्बन्ध नहीं। मोह के अभाव में जब शरीर भी अपना नहीं रहता तब अन्य की क्या कथा। कहा भी है
अण्णं देहं गिण्हदि जणणी अण्णा य होदि कम्मादो। अण्णं होदि कलत्त अण्णो विय जायदे प्रत्तो ॥ ५० ॥ एवं बाहिर दब्वं जाणदि स्वादु अप्पणो भिण्णं । जाणतो वि हु जीवो तत्थेव हि रच्चदे मूढो ॥१॥ जो जाणिऊण देहं जीवसरूवाद तच्चदो भिण्णं । अप्पाणं पि य सेववि कज्जकर तस्स अण्ण ॥२॥ [स्वामि कार्तिकेय अनुप्रेक्षा ]
अर्थ-अपने उपार्जित कर्मों के उदय से जीव भिन्न शरीर को ग्रहण करता है। माता भी उससे भिन्न होती है। स्त्री भी भिन्न होती है और पुत्र भी भिन्न ही पैदा होता है। इस प्रकार शरीर माता स्त्री-पुत्र आदि की तरह हाथी घोड़ा रथ धन मकान आदि बाह्य द्रव्यों को आत्मा से भिन्न जानता है, किन्तु भिन्न जानते हुए भी मूर्ख प्राणी उन्हीं से राग करता है। जो प्रात्मस्वरूप से शरीर को यथार्थ में भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ध्यान करता है, उसीकी अन्यत्वअनुप्रेक्षा कार्यकारी है।
दो व्यक्तियों में झगड़ा हो गया उनमें से एक व्यक्ति ने अपनी भूल का अनुभव कर दुसरे व्यक्ति से द्वेष दर कर लिया और क्षमा की याचना करली, किन्तु दूसरा व्यक्ति क्षमा नहीं करता और शल्य बनाये रखता है।
कौन ? द्वेष छोड़ने वाला या द्वेष रखने वाला? इसी प्रकार दो व्यक्तियों में राग था, किन्तु एक व्यक्ति ने अपनी भूल का अनुभव कर दूसरे व्यक्ति से राग हटा लिया और क्षमा याचना करली कि भ्रम अपना मानकर राग करता चला आ रहा था सो मेरी यह बहुत भूल थी, किन्तु दूसरा व्यक्ति भूल को न स्वीकार करता है और न राग छोड़ता है शल्य बनाये रखता है । दोषी कौन राग को छोड़ने वाला या राग रखने वाला ?
इस शंका के विषय में तीसरी दृष्टि इस प्रकार है
सब जीवों के साथ कर्म बंधे हए हैं और उन कर्मों के उदय के अनुसार सुखी-दुखी होते हैं। एक जीव जीवको न तो कर्म दे सकता है और न कर्म हर सकता है. इसलिये प्रत्येक जीव अपने कर्मोदय के सखी-दःखी होता है उसका यह मानना कि दूसरे जीव ने मुझको दुःखी कर दिया एक भ्रम है। ऐसा ही श्री अमतचन्द्राचार्य ने भी कहा है। किन्तु इसका एकान्त पक्ष ग्रहण करके अनर्गल प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये अथवा कृतघ्न नहीं होना चाहिए।
"सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात् । स्वकर्म च नान्येनान्यस्य दातु शक्यं तस्य स्वपरिणामेनवोपाय॑माणत्वात् । ततो न कथंचनापि अन्योन्यस्य सुखदुःखे कुर्यात् ।" [समयसार पृ. ३४६]
अर्थात-प्रथम तो सुख-दुःख जीवों के अपने कर्म के उदय से ही होते हैं। इसलिये कर्मोदय का प्रभाव होने से उन सख-दुःखों के होने का असमर्थपना है। तथा अन्य पुरुष अपने कर्म को अन्य को नहीं दे सकता वह कर्म अपने परिणामों से ही उत्पन्न होता है, इस कारण एक दूसरे को सुख-दुःख किसी तरह भी नहीं दे सकता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org