Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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७४२ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
" सम्माइट्ठी- -ण च णवपयस्थविसय रुहपच्चय-सद्धाहिविणा झाणं संभवदि, तप्पवृत्ति कारणसंवेग- णिव्याणं असंभवादो । चत्तासेस बजत रंगगंथो ।" ( धवल पु० १३ पृ० ६५ )
अर्थात् - धर्मध्यान का ध्याता सम्यग्दष्टि होता है, कारण कि नौ पदार्थ विषयक रुचि प्रतीति धौर श्रद्धा के बिना ध्यान की प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति के मुख्यकारण संवेग श्रीर निर्वेद अन्यत्र नहीं हो सकते | वह ध्याता समस्त बहिरंग और अतरंग परिग्रह का त्यागी होता है ।
खपुष्पमथवा शृङ्ग खरस्थापि प्रतीयते ।
न पुनर्देशकालेऽपि ध्यान सिद्धिगृ हाथमे ||४|१७|| ( ज्ञानार्णव )
अर्थ - आकाश के
पुष्प और गधे के सींग नहीं होते हैं । कदाचित् किसी देश व काल में इन के होने की प्रतीति हो सकती है, परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होती तो किसी देश व काल में संभव नहीं है ।
कहियाणि दिट्टिवाए पडुच्चगुणठाणं जाणि झाणाणि । तम्हास बेसविरओ मुक्खं धम्मं ण झाएई ॥ ३८३ ॥ कि जं सो गिहवंतो बहिरंतरंगंथपरिमिओ णिच्चं । बहुआरंभपत्तो कह झाय सुद्धमव्याणं ॥ ३८४ ॥ घरवावारा केई करणोया अस्थि तेण ते सवे । झाद्वियस्स पुरओ चिट्ठति णिमीलियच्छिस्स ॥ ३८५|| अह टिकुलिया झाणं शायद अहवा स सोवए झाणी । सोवंतो झायव्वं ण ठाइ, चित्तम्मि वियलम्मि ॥ ३८६ ॥ ( भावसंग्रह )
अर्थात् दृष्टिवादनामक बारहवें श्रंग में गुणस्थानों की अपेक्षा से ध्यान का कथन किया है जिससे सिद्ध होता है कि गृहस्थ के मुख्य धर्मेध्यान नहीं होता । गृहस्थों के मुख्य घर्मध्यान न होने का कारण यह है कि गृहस्थों के सदाकाल बाह्य आभ्यंतर परिग्रह रहते हैं तथा आरंभ भी अनेक प्रकार के बहुत से होते हैं, इसलिये वह शुद्धात्मा का ध्यान कैसे कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता । गृहस्थों को घर के कितने ही व्यापार करने पड़ते हैं । जब वह गृहस्थ अपने नेत्रों को बंद कर ध्यान करने बैठता है तब उसके सामने घर के करने योग्य सब व्यापार आ जाते हैं । वह गृहस्थ उस ध्यान के बहाने सो जाता है जब वह सो जाता है तब उसका व्याकुल चित्त ध्येय पर कभी नहीं ठहर सकता |
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भट्टरउद्द झाणं भद्द अत्थित्ति तम्हि गुणठाणे । बहुआरंभपरिग्गह जुत्तस्स य णत्थि तं धम्मं ॥ ३५७ ॥ ( भावसंग्रह )
अर्थात् - पाँचवें गुणस्थान में आतं, रौद्र और भद्र ये तीन ध्यान होते हैं । इस गुणस्थान वाले जीव के बहुतसा आरंभ होता है और बहुतसा परिग्रह होता है, इसलिये इस गुणस्थान में घर्मंध्यान नहीं होता ।
श्री शुभचन्द्र, श्री देवसेन, श्री जिनसेन ( श्री वीरसेन ) आदि आचार्यों ने गृहस्थ के धर्मध्यान का भी निषेध किया है तब उनके शुद्धोपयोग कैसे हो सकता है ? अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि चतुर्थंगुणस्थानवर्ती के शुद्धोपयोग संभव नहीं है । संयत के ही शुद्धोपयोग संभव है ।
- जै. ग. 23-11-67/ VIII / कंवरलाल
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