Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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७४.]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। "मोहणीयविणासो पुण धम्मज्माणफलं, सुटुमस परायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभावो।"
[धवल पु० १३, पृ० ८१] अर्थ-मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्तिमसमय में उसका विनाश देखा जाता है।
इस आर्षवाक्य से यह सिद्ध हो जाता है कि धर्मध्यान भावमोक्ष के लिये साक्षात् कारण है और द्रव्यमोक्ष के लिये परम्परा कारण है। यदि कहा जाय कि भावमोक्ष असिद्ध है, सो ऐसा कहना ठीक नहीं है। भावमोक्ष की सिद्धि के लिये युक्ति और आगम निम्न प्रकार है।
कम दो प्रकार का है, भावकर्म और द्रव्यकर्म । मोहनीय कर्मोदय से होनेवाले आत्मा के राग, द्वेष, मोहरूप औदयिक भाव तो भावकर्म है। इन भावकर्म के निमित्त से जो पौद्गलिक ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों का बन्ध होता है वह द्रव्य कर्म है। कहा भी है--
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णति बंधकत्तारो ।
मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य बोद्धव्वा ॥ ११६ ॥ [ समयसार ] अर्थात्-बन्ध के कारण सामान्य से चार कहे गये हैं। मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग ।
मात्र योग से ईर्यापथ-आस्रव होता है अथवा मात्र एकसमय की स्थितिवाला बन्ध होता है, जो उसीसमय निर्जरा को प्राप्त हो जाता है। यह बन्ध संसार का कारण नहीं है। मिथ्यात्व प्रादि भावों से होने वाला बन्ध ही संसार का कारण है। अतः मोहनीयकर्मोदय से होनेवाले मिथ्यात्वादि ही भावकम हैं। इन भावकों से मुक्त होना अर्थात् भावकर्मों का अत्यन्त क्षय हो जाना भावमोक्ष है।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी पंचास्तिकाय गाथा १५०-१५१ को टीका में 'स एष जीवन्मुक्तिनामा भाव. मोक्षः।' इन शब्दों द्वारा भावमोक्ष का कथन किया है और इसको द्रव्यमोक्ष का हेतु भी कहा है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भावपाहुड़ गाथा ७६ में 'सुहधम्मं जिणरिदेहि' इन शब्दों द्वारा धर्मध्यान को शुभभाव कहा है। इसका कारण यह है कि जिन भावों से संवर, निर्जरा तथा आस्रव व बन्ध होता हो वे भाव शुभभाव या मिश्रभाव हैं। धर्मध्यान का फल भी सातिशय-पुण्यबन्ध तथा संवर, निर्जरा व मोहनीयकर्म का क्षय है इसलिये धर्मध्यान भी शुभ भाव है। धर्मध्यान भावमोक्ष का साक्षात् कारण है और द्रव्यमोक्ष का परम्परा कारण है।
-जं. ग. 16-9-65/IX/ प्र. पन्नालाल शुद्धोपयोग का प्राद्य गुणस्थान शंका-शुद्धोपयोग कौनसी अवस्था में अर्थात् कौनसे गुणस्थान में होता है ? व्यलिंगीमुनि के शुद्धोपयोग होता है या नहीं ?
समाधान-द्रव्यानुयोग की दृष्टि से शुद्धोपयोग अप्रमत्तसंयतगुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान तक होता है अर्थात् सातवें से बारहवें गुणस्थान तक होता है, क्योंकि, वहां पर बुद्धिपूर्वक राग का अभाव है। कहा भी है'अप्रमत्तावि-क्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः ।' (प्रवचनसार तात्पर्यवृत्तिः टीका ) । 'अप्रमत्तादि क्षीणकषाय-पर्यन्तं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुढनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते । ( वृहद्रव्यसंग्रह गा० ३४ टीका ) अर्थात-अप्रमत्तादि क्षीणकषायगुणस्थान पर्यंत छहगुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टभेद से विवक्षित एकदेश शुखनयरूप शुद्धोपयोग वतंता है।
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