Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 791
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७४७ जाने से पूर्ण वीतराग है, वीतरागरत्नत्रय है तथा वहाँ कर्मबन्ध नहीं होता, अतः ग्यारहवें गुणस्थान से शुक्लध्यान (शुद्धोपयोग ) कहा गया है । कहा भी है "असंजदसम्मादिट्टि-संजदासंजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद अपुश्वसंजद अणियट्ठिसंजद-सुहुमसांपराइयखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि ति जिणोवएसादो।" [ धवल पृ० १३ पृ० ७४ ] अर्थ-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक और उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक और उपशामक, अनिवृत्तिकरणसंयत, क्षपक और उपशामक, सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है, ऐसा जिनदेव का उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान (शुद्धोपयोग ) कषायसहित जीवों के होता है। तिण्णं घादिकम्माणं जिम्मूलविणासफलमेयत्तविवक्कअविचारज्झाणं । मोहणीयविणासो पुण धम्मज्झाणफलं, सुहमसांपरायचरिमसमए तस्स विणासवलंभादो।" [ धवल पु० १३ पृ०८१ ] अर्थ-तीन घातिकर्मों का ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय का ) निर्मूल विनाश करना एकत्ववितर्कअविचार नामा दूसरे शुक्लध्यान का फल है। परन्तु दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान ( शुभोपयोग ) का फल है। क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्तिमसमय में मोहनीय का विनाश देखा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र की टीका के कर्ता श्री पूज्यपाद आदि प्राचार्यों के मत से धर्मध्यान स्वस्थान अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक होता है, क्योंकि वहीं तक बुद्धिपूर्वक राग है। उसके आगे बुद्धिपूर्वक राग का अभाव हो जाने से श्रेणी में ( उपशमश्रेणी व क्षपकश्रेणी में ) शुक्लध्यान होता है। कहा भी है"तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति। श्रेण्यारोहणात्प्राग्धयं, श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते ।" [ सर्वार्थसिद्धि अ. ९ सूत्र ३६ व ३७ टीका ] अर्थ-वह धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और स्वस्थानअप्रमत्तसंयत के होता है। श्रेणि चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है। उपशम व क्षपक दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं। अ गुणस्थान से स्वस्थान-सातवेंगुणस्थान तक धर्मध्यान होता है । सातिशय-अप्रमत्तसंयत ( अधःकरण ) से श्रेणि का प्रारम्भ होता है, क्योंकि वहाँ से बुद्धिपूर्वक राग का अभाव हो जाता है। अतः सातिशय अप्रमत्तसंयत से शुक्लध्यान हो जाता है। यहाँ पर श्री पूज्यपादस्वामी ने बुद्धिपूर्वक राग का अभाव हो जाने से वीतराग मानकर सातवेंगुणस्थान से शक्लध्यान का कथन किया है। 'धवलसिद्धान्त ग्रंथ में श्री वीरसेनाचार्य ने समस्त राग के प्रभाव हो जाने पर वीतरागता स्वीकार करके ग्यारहवेंगुणस्थान से शुक्लध्यान का कथन किया है। अपेक्षा भेद होने से कथन में भेद है। सरागरत्नत्रय में धर्मध्यान ( शुभोपयोग ) और वीतरागरत्नत्रय में शुक्लध्यान ( शुद्धोपयोग ) होता है, यह सिदान्त दोनों आचार्यों को स्वीकार है। वीतरागनिविकल्पसमाधि भी वीतरागरत्नत्रय में होती है, सरागरत्नत्रय में वीतरागनिर्विकल्पसमाधि सम्भव नहीं है। अविरतसम्यग्दृष्टि की स्वानुभूति पर विचार किया जाता है श्री देवसेन आचार्य ने आलापपद्धति गाथा ६ में लिखा है-"चैतन्यमनुभूतिः" टिप्पण "अनुभूतिः द्रव्यस्वरूपचितनं ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918