Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थात् शुक्लध्यान और धर्मध्यान मोक्षहेतु हैं । परे मोक्षहेतू इति वचनात्पूर्वे आतंरौद्र संसारहेतू इत्युक्त भवति । कुतः? तृतीयस्य साध्यस्याभावात् । पर मोक्ष के हेतु हैं इस वचन से पूर्व के आर्त व रौद्र ये संसार के हेतु हैं, यह तात्पर्य फलित होता है, क्योकि मोक्ष और संसार के सिवा और कोई तीसरा साध्य नहीं है। ( स. सि. टीका)
मोह सम्वुवसमो पुण धम्मज्झाण फलं, सकसायत्तरगेण धम्मज्झाणिणो सुहमसांपराइयस्स चरिमसमए मोहणीयस्स सम्वुवसमुवलंभावो। मोहणीयविणासो पुण धम्मज्झाणफलं सुहमसापराय चरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो।
(१० ख० पु. १३०८०.८१)
अर्थ-मोह का उपशम करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि कषायसहित धर्मध्यानी के सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्तिमसमय में मोहनीयकर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है। मोहनीय का विनाश करना भी धर्मध्यान का फल है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है ।
__ मोहनीयकर्म का उदय ही बन्ध का कारण है, किन्तु धर्म ध्यान उस मोहनीयकर्म की सर्वोपशमना तथा क्षय का कारण है, फिर वह धर्मध्यान बंध का कारण किसप्रकार हो सकता है ? दर्शनमोह का उपशम तथा क्षय सातवें गूणस्थान तक ही होता है, उससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होता है । दर्शनमोह की उपशामना तथा क्षय में भी धर्मध्यान कारण है। ऐसा धर्मध्यान बंध का कारण किसी प्रकार भी नहीं हो सकता। वस्तुस्वरूप को समझे बिना जो धर्मध्यान को बन्ध का कारण कहते हैं, उन्हें आगमवाक्य का भय नहीं है। आगमविरुद्ध कथन करने से मिथ्यात्व का तीव्रबन्ध होता है।
. -जं. सं. 27-12-56/ क. दे. गया धर्मध्यान के योग्य गुणस्थान शंका-धर्मध्यान किस गुणस्थान से किस गुणस्थान तक होता है ? क्या १२ वें गुणस्थान में भी धर्मध्यान होता है ? क्या तीसरे गुणस्थान में भी धर्मध्यान होता है ?
समाधान-धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक होता है, क्योंकि दसवें गुणस्थान तक ही कषाय का सद्भाव है। अकषाय जीव के धर्मध्यान नहीं होता, शुक्लध्यान होता है। श्री वीरसेमाचार्य ने कहा भी है
"असंजदसम्माविट्ठि- संजदाजिद-पमत्तसंजद-अपमत्तसंजवअणियट्ठिसंजद-सुहुमसांपराइय - खवगोवसामएसु धम्मज्माणस्स पवुत्ती होवि त्ति जिणोवएसादो । धवल पु० १३ पृ. ९४ ।
मर्थ-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक और उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक और उपशामक, अनिवृत्तिकरणसंयत तथा क्षपक और उपशामक, सूक्ष्मसाम्परायसंयत अर्थात् चौथे से दसवें गणस्थानवी जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है, ऐसा जिनदेव का उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान कषाय सहित सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है।
बारहवां गुणस्थान कषायरहित अकषाय जीवों का है, अतः बारहवें गुणस्थान में धर्मध्यान नहीं होता है ।
तीसरे गुणस्थान में जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होता, किन्तु सम्यग्मिथ्यारष्टि होता है अतः तीसरे गुणस्थान में धर्मध्यान नहीं होता।
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