Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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गृहस्थावस्था में धर्मध्यान अमुख्यतया तथा अल्पकाल भावी होता है ___ शंका-सर्वार्थ सिद्धि पृ० ४५५-४५६ 'सामान्य और विशेषरूप से कहे गये इस चारप्रकार के धर्मध्यान और शुक्लध्यान को पूर्वोक्त गुप्ति आदि बहुत प्रकार के उपायों से युक्त होने पर, संसार का नाश करने के लिये जिनने भले प्रकार से परिकर्म को किया है, ऐसा मुनि ध्यान करने के योग्य होता है।' प्रश्न यह है कि धर्मध्यान तो मुनि अवस्था से पूर्व भी हो सकता है। फिर यहां ऐसा क्यों लिखा है कि ऐसा मुनि ध्यान करने के योग्य होता है।
समाधान-मुनि अवस्था से पूर्व गृहस्थ-अवस्था है। गृहस्थ अवस्था में गृहसम्बन्धी अथवा परिग्रहसंबंधी नानाविकल्प रहते हैं. जिसके कारण गृहस्थ का मन एकाग्र नहीं हो पाता। इसलिये ध्यान की बात तो दूर रही, उपयोग की अस्थिरता के कारण आचार्य ग्रन्थों के अनुवाद में भी भूल कर जाता है, जिसकी परम्परा चल जाती है। श्री देवसेन आचार्य ने कहा भी है
अट्टरउद्द झाणं भद्द अस्थित्ति तम्हि गुणठाणे।
बहुआरंभपरिग्गहजुत्तस्स य पत्थि तं धम्मं ॥३५७॥ [भावसंग्रह] अर्थ-इस पांचवें गुणस्थान में आर्तध्यान, रौद्रध्यान और भद्रध्यान ये तीन प्रकार के ध्यान होते हैं । इस गुणस्थानवाले जीव के बहुत-सा प्रारम्भ होता है और बहुत सा ही परिग्रह होता है, इसलिये इस गुणस्थान में धर्मध्यान नहीं होता।
घर वावारा केई करणीया अस्थि तेण ते सम्वे ।
झाणट्टियस्स पुरओ चिट्ठति णिमीलियच्छिस्स ॥३८५॥ [भावसंग्रह] अर्थात् - गृहस्थों को घर के कितने ही व्यापार करने पड़ते हैं। जब वह गृहस्थ अपने नेत्रों को बन्द कर ध्यान करने बैठता है तब उसके सामने घर के करने योग्य सब व्यापार आ जाते हैं।
अह ढिकुलिया झाणं झायइ अहवा स सोवए झाणी। सोवंतो झायध्वं ण ठाइ चित्तम्मि वियलम्मि ॥३८६।।
अर्थ-जो कोई गहस्थ ध्यान करना चाहता है तो उसका वह ध्यान ढेकी के समान होता है। जिसप्रकार ढेकी धान कटने में लगी रहती है, परन्तु उससे उसको कोई लाभ नहीं होता उसको तो परिश्रम मात्र ही होता है। इसी प्रकार गृहस्थों का ध्यान परिश्रम मात्र होता है अथवा ध्यान करने वाला वह ध्यानी गृहस्थ सो जाता है । तब उसके व्याकुल चित्त में ध्यातव्य नहीं ठहरता।
मुक्खं धम्मज्झाणं उत्तं तु पमायविरहिए ठाणे ।
देसविरए पमत्ते उवयारेणेव गायध्वं ॥३७१॥ अर्थ-धर्मध्यान मुख्यता से प्रमादरहित अर्थात् सातवेंगुणस्थान से होता है तथा देशविरत-पांचवेंगुणस्थान में व प्रमत्त संयत नामक छठे गुणस्थान में यह धर्मध्यान उपचार से जानना चाहिए ।
इसी बात को श्री पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में तथा श्री अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवातिक में कहा है। अतः गृहस्थके लिये दान पूजन का उपदेश द्वादशांग जिनवाणी में दिया गया है।
-ज'.ग. 10-6-65/IX/र.ला.जैन, मेरठ
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