Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-सम्यक्त्व का बहिरंग निमित्त जिन सूत्र तथा उसका जानने वाला पुरुष है और दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय आदिक सम्यग्दर्शन के अन्तरंग कारण हैं।
जो करणानुयोग की दृष्टि में सम्यग्दृष्टि नहीं है वह किसी भी अनुयोग की दृष्टि में सम्यग्दृष्टि नहीं है। अतः उसके धर्मध्यान सम्भव नहीं है ।
__शुक्ललेश्या वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के भी धर्मध्यान सम्भव नहीं है क्योंकि उसके मिथ्यात्व और कषाय दोनों पाप हैं । मंद कषाय के सद्भाव में विशुद्ध परिणामों के कारण वह संसार के हेतुभूत ऐसे पुण्य कर्म का बन्ध करता है।
-जे.ग. 16-9-65/VIII/ ब्र. पन्नालाल (१) धर्मध्यान के भेद, स्वरूप व स्वामी
(२) वर्तमान में उत्कृष्ट धर्मध्यान का प्रभाव शंका-आगम में धर्मध्यान के चार भेद कहे हैं । क्या वर्तमान में धर्मध्यान के चारों भेद सम्भव हैं ?
१. करणानुयोग की अपेक्षा असम्यग्दृष्टि जीव भी प्रथमानुयोग व चरणानुयोग से सम्यग्दृष्टि कहा/माना जा सकता है। जो निम्न प्रमाणों से विदित होता है:-(१) प्रथमानुयोग विष उपचाररूप कोई धर्म का अग भए सम्पर्ण धर्म भया कहिए। जैसे जिन जीवनि के शंका, कांक्षादिक न भए, तिनके सम्यक्त्व भया कहिए । सो एक कोई कार्य विषं ही शंका, कांक्षा न किये ही तो सम्यक्त्य न होय सम्यक्त्व तो तत्व अद्धान भए होय है। परन्तु निश्चयसम्यक्त्व का तो व्यवहार विष उपचार किया, बहुरि व्यवहारसम्यक्त्व के कोई एक अंग विष सम्पूर्ण व्यवहारसम्यक्त्व का उपचार किया; ऐसे उपचार करि सम्यक्त्व भया कहिए हैं। बहुरि कोई भला आचरण भए सम्यकचारित भया कहिए हैं। जान जैनधर्म अंगीकार किया होय वा कोई छोटी-मोटी प्रतिज्ञा गही होय. ताको आवक कहिए, सो आवक तो पंचम गुणस्थानवी भए होहै । परन्तु पूर्ववत् उपचार कार याको आवक कया (प्रथमानुयोग में )। [ मोक्षमार्ग प्रकाशक, सस्तीग्रंथमाला, अ० ८ पृष्ठ ४०१ ]
(२) चरणानुयोग विर्षे जैसें जीवनिक अपनी बुद्धिगोचर धर्म का प्राचरण होय सो उपदेश दिया है।
( वही ग्रंथ पृ० ४०७ ) (३) चरणानुयोग विर्षे व्यवहार लोक-प्रवृत्ति अपेक्षा ही नामादिक कहिए है। यहां जाकै जिनदेवादिकका
श्रद्धान पाइए सो तो सम्यग्दृष्टि, जाकै तिनका श्रद्धान नाहीं सो मिथ्यात्वी जानना ।
( वही प्रथ, पृ० ४१६ ) (४) चरणानुयोग विर्ष बाह्यतप की प्रधानता है । ( वही, पृ० ४१७ ) (५) चरणानुयोग विर्षे तो बाह्यक्रिया की मुख्यता करि वर्णन करिए है । ( वही, पृ० ४१९ ) (६) चरणानुयोग विर्षे ... चरणानुयोग ही के सम्यक्त्व; मिथ्यात्व ग्रहण करने । ( वही, पृ० ४१६ )
उक्त सब कथनों से विदित होता है कि करणानुयोग की अपेक्षा असम्यग्दृष्टि शेष अनुयोगों की अपेक्षा भी असम्यादृष्टि ही कहा/माना जाय; ऐसा नहीं है। इसके लिए मोक्षमार्ग प्रकारक का सम्पूर्ण अष्टम अध्याय पठनीय है।
-सम्पादक
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