Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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त्याग कर दिया है जो समस्त परीषहों को सहन कर चुका है जिसने समस्त क्रियायोगों का अनुष्ठान कर लिया है जो ध्यान धारण करने के लिये सदा उद्यम करता रहता है, जो महाशक्तिशाली है और जिसने अशुभलेश्याओं और अशुभभावनाओं का सर्वथा त्याग कर दिया है। इस प्रकार के सम्पूर्ण लक्षण जिसमें विद्यमान हैं वह धर्मध्यान के ध्यान करने योग्य ध्याता माना जाता है।
श्री कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ने आत्मस्वभावस्थित मुनि के धर्मध्यान बतलाया है, किन्तु कुछ आचार्यों ने धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से बतलाया है सो इन में कौनसा कथन ठीक है ?
___मुख्य और उपचार के भेद से धर्मध्यान दो प्रकार का है। अप्रमत्तगुणस्थान में मुख्य धर्मध्यान होता है और उससे नीचे के गुणस्थानों में उपचार से धर्मध्यान होता है । कहा भी है
मुख्योपचार भेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा ।
अप्रमत्तेषु तन्मुख्य मितरेष्वौपचरिकं ॥४७॥ [तत्त्वानुशासन] इसका भाव ऊपर लिखा जा चुका है।
मुक्खं धम्मज्माणं उत्तं तु पमायविरहिए ठाणे ।
देस विरए पमत्ते उवयारेणेव णायध्वं ॥३७१॥ [भावसंग्रह] धर्मध्यान मुख्यता से प्रमादरहित सातवेंगुणस्थान में होता है। देशविरत-पांचवेंगुणस्थान में और प्रमत्तसंयत-छठेगुणस्थान में धर्मध्यान उपचार से होता है ।
वर्तमान में धर्मध्यान सम्भव है, किंतु उत्कृष्टधर्मध्यान नहीं हो सकता, जघन्य व मध्यम धर्मध्यान सम्भव है. क्योंकि उत्कृष्ट सामग्री का अभाव है।
-जें.ग. 18-3-71/VIII/रो. ला. जैन अवती सम्यक्त्वी के ध्यान का पालम्बन शंका-चौथे गुणस्थानवाला सामायिक के समय परिग्रह से नहीं, कर्मों से बंधा है । उस समय आत्मा का ही अनुभव करे अरहन्त का ध्यान न करे, क्योंकि परद्रव्य है । ऐसा कहना कहाँ तक ठीक है?
समाधान-चौथे गुणस्थानवाला जीव असंयतसम्यग्दृष्टि होता है। उसके तो एकदेश परिग्रह का भी त्याग नहीं, समस्त परिग्रह का त्याग तो कैसे सम्भव है ? चौथे गुणस्थान वाला जीव तो बाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार के परिग्रहों से बंधा हुआ है । उसके शुद्धोपयोग तो सम्भव ही नहीं। शुभोपयोग होता है। (प्रवचनसार गाथा ९ पर श्री जयसेनाचार्य की टीका तथा वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ३४ पर संस्कृत टीका )। असंयतसम्यग्दृष्टि को आत्मस्वभाव की रुचि आदि होती है। आत्मस्वभाव श्री अरहंत-भगवान के व्यक्त हो चुका है, अतः उस चौथे गुणस्थान वाले को श्री अरहंत भगवान का बहुमान होता है और श्री परहंत भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय के चितवन के द्वारा अपने आत्म स्वभाव को जानता है। कहा भी है
जो जाणदि अरहतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत हि ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥८॥ प्रवचनसार ॥ अर्थ-जो अरहंत को द्रव्य गुण पर्यायरूप से जानता है वह आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य नाश को प्राप्त हो जाता है।
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