Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान - जीव चेतन है, अमृर्तिक, अविनाशी है । शरीर अचेतन ( जड़ ) है । मूर्तिक व विनाशी है । इस प्रकार लक्षण भेद से यद्यपि जीव और शरीर दोनों पृथक्-पृथक् द्रव्य हैं, किन्तु दोनों का अनादिकाल से परस्पर बंध हो रहा है । इस बंध के कारण ही जीव का लक्षण यह कहा गया है - 'इन्द्रियप्रारण, बलप्राण, आयुप्राण व उच्छ्वासप्राण इन चार प्राणों के द्वारा जो जीता था, जीता है और जीवेगा वह जीव है ।' ( बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा ३ ) जीव के मारने में इन प्राणों का घात होता है और प्रमत्तयोग होने से मारनेवाले के प्राणों का भी घात होता है अतः जीव के मारने में हिंसा है । समयसार गाथा ४६ की टीका में श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा भी है'परमार्थनय जीव को शरीर से भिन्न कहता । उसका ही एकान्त किया जाय तो त्रस, स्थावर जीवों का घात नि:शंकपने से करना सिद्ध हो जायगा । जैसे भस्म के मर्दन करने में हिंसा का प्रभाव है उसी तरह उन जीवों के मारने में भी हिंसा सिद्ध नहीं होगी, किन्तु हिंसा का अभाव ठहरेगा तब उन जीवों के घात होने से बंध का भी अभाव ठहरेगा ।' श्री पं० जयचन्दजी ने भी विशेषार्थ में कहा- ऐसा एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है । अवस्तु का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण मिथ्या प्रवस्तु रूप ही है । इसलिए व्यवहार का उपदेश न्यायप्राप्त है । इस तरह स्थाद्वाद कर दोनों नयों का विरोध मेट श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ।"
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इस उपर्युक्त आगम प्रमाण से सिद्ध हो गया कि जीवों के मारने में हिंसा है। घीवर कसाई आदि जितने भी हिंसक जीव हैं वे सब पापी हैं । एकान्तपक्ष ग्रहण कर जीवों के मारने में हिंसा का प्रभाव कहना दिगम्बर जैन आगम अनुकूल नहीं है ।
कता है ?
- जै. सं. 23-10-58 / V / इ. ला छाबड़ा, लश्कर
भाव अहिंसा का साधन द्रव्य अहिंसा है।
शंका- भावहिंसा के त्याग से ही कर्मबन्ध रुक जाता है, फिर द्रव्यहिंसा के त्याग की क्या आवश्य
समाधान - द्रव्य हिंसा का त्याग भावहिंसा के त्याग का साधन है, अतः द्रव्यहिंसा के त्याग की आवश्यकता है । प्रवचनसार गा. २२९ की टीका में कहा भी है
"चिदानन्दैकलक्षण निश्चयप्राणरक्षणभूता रागादिविकल्पोपाधिरहिता या तु निश्चयनयेनाहिंसा तत्साधकरूपा बहिरङ्गपरजीवप्राणव्यपरोपण निवृत्तिरूपा द्रव्याहिंसा च सा द्विविधापि तत्र युक्ताहारे सम्भवति । यस्तु तद्विपरीतः सयुक्ताहारो न भवति । कस्मादिति चेत् ? तद्विलक्षणभूताया द्रव्यरूपाया हिंसाया सद्भावादिति । "
चिदानन्द एक लक्षणरूप निश्चयप्राण की रक्षाभूत रागादि विकल्परूप उपाधि न होने देना सो भावग्रहिंसा है तथा इसकी साधनरूप बाहर में पर- जीवों के प्राणों को कष्ट देने से निवृत्त रहना सो द्रव्य अहिंसा है । योग्य आहार में दोनों अहिंसा का प्रतिपालन होता है । जो इसके विरुद्ध आहार है वह योग्य आहार नहीं है, क्योंकि उसमें द्रव्य अहिंसा से विलक्षण द्रव्यहिंसा का सद्भाव होता है ।
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पदम्हि सामरद्ध, छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि ।
जायद जवि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ॥ २११ ॥ प्रवचनसार
टीका- यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमाख्याया कायचेष्टायाः कथंचिद् बहिरङ्गच्छेवो जायते तदा तस्य सर्वथान्तरं गच्छेदवजितत्वादालोचनपूर्विकया क्रिययैव प्रतिकारः ।
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