Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
व्रत- प्रतिमा राग का माप नहीं, वीतरागता का माप है
शंका- हिन्दी आत्मधर्म नं० १५१ के पृष्ठ २५० पर लिखा है- 'प्रतिमा कितनी है ? व्रत कितने हैं ? इसप्रकार मात्र शुभराग से अज्ञानी जिनधर्म का माप निकालते हैं। व्रत, प्रतिमा आदि का शुभराग हो जिनधर्म हैऐसा लौकिक जन तथा अन्यमति मानते हैं, किन्तु लोकोत्तर ऐसे जैन मत में ऐसा नहीं मानते ।' क्या व्रत वा प्रतिमा या वीतरागता का माप है ? इसको समझाने की कृपा करें। शुभ राग का माप
समाधान - हिन्दी आत्मधमं के लेखक महोदय ने किस अपेक्षा से उपर्युक्त वाक्य लिखे हैं और क्या अभिप्राय रहा होगा इसका विचार न करके इस समाधान में मूल शंका 'क्या व्रत व प्रतिमा शुभराग का माप है या वीतरागता का' पर श्रागमप्रमाण सहित विचार किया जावेगा ।
'व्रत' का लक्षण इसप्रकार है
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हिसानृतस्ते या ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतं ॥१॥ मोक्षशास्त्र अध्याय सात ।
अर्थ - हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से निवृत्त होना व्रत है । ये हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह, पाँच होने पर भी एक हिंसा में गर्भित हो जाते हैं, क्योंकि इन पाँचों के द्वारा आत्मपरिणाम (स्वभाव) का घात होता है ( पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा ४२ ) । रागादि भावों की उत्पत्ति होना हिंसा है ( पु० सि० गाथा ४४ ) अतः रागादि से विरत ( विरमण, निवृत्त ) होना व्रत है । रागादि से निवृत्त होना राग का माप कैसे हो सकता है वह तो वीतरागता का माप है ।
हिंसादि अर्थात रागादि से सर्वदेश निवृत्त होना मुनि धर्म है और एकदेश विरति श्रावकधर्म है । धर्म चारित्र के भेद हैं और चारित्र आत्मा का स्वरूप है । समयसार के टीकाकार श्री अमृतचन्द्र सूरि ने सिद्धयुपाय ग्रन्थ में इसप्रकार कहा है
चारितं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्त विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥३९॥ हिसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कारस्यैकदेश विरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ॥४०॥ निरतः कास्यंनिवृत्तौ भवति समयसार - भूतोऽयं । यात्वेकदेशविर तिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥४१॥
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अर्थ – क्योंकि समस्त पाप युक्त योगों के त्याग से सम्पूर्ण कषायों से रहित, निर्मल उदासीनतारूप चारित्र होता है अतः वह आत्मा का स्वरूप है ||३९|| हिंसा, असत्य वचन, चोरी, कुशील भोर परिग्रह से सर्वदेश और एक देश त्याग होने पर चारित्र दो प्रकार का होता है ||४०|| उस सर्वदेश निवृत्ति ( त्याग ) में लवलीन यह मुनि शुद्धोपयोग स्वरूप में आचरण करने वाला होता है और एकदेश विरति में लगा हुआ उपासक ( श्रावक ) होता है ||४१ || इस प्रकार हिंसा आदि पाँच पापों से एकदेश विरति ( ग्यारह प्रतिमा रूप ) श्रावकधर्म व सम्पूर्ण विरतरूप मुनिधर्मं चारित्र होने के कारण श्रात्मस्वरूप है । अतः प्रतिमा या व्रत आत्मस्वरूप होने के कारण राग का माप कैसे हो सकते हैं ? ये तो वीतरागता के माप हैं, क्योंकि आत्मस्वरूप वीतरागता है ।
इस बात को भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसप्रकार कहा है
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ये दोनों पुरुषार्थ --
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