Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ७१६
अर्थ - इन ग्यारह प्रतिमानों में से पहले की छहप्रतिमा के धारक गृहस्थ कहे जाते हैं । सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमा के धारक ब्रह्मचारी कहे जाते हैं तथा अन्तिम दो प्रतिमा वाले भिक्षु कहे जाते हैं। और उन सबसे ऊपर मुनि या साधु होते हैं ।
अब्रह्मारम्भपरिग्रहविरता वर्णिनस्त्रयो मध्याः ।
अनुमतिविरतोद्दिष्ट विरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ||३|| सागारधर्मामृत अ. ३
अर्थ —— अब्रह्मविरत, आरम्भविरत और परिग्रहविरत ये तीन मध्यमश्रावक वर्णी अर्थात् ब्रह्मचारी होते हैं और अनुमतिविरत तथा उद्दिष्ट-विरत ये दो श्रावक उत्तम और भिक्षुक होते हैं ।
इन श्लोकों से ज्ञात होता है कि क्षुल्लक को अपने लिये वर्गी शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं है । - जै. ग. 5-12-63 / IX / प्रकाशचन्द
ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के ११ श्रसंयम
शंका- ग्यारहवीं प्रतिमा वाले श्रावक के ११ अव्रत बतलाये हैं वे कौन कौन से हैं ?
समाधान - पांच स्थावर काय और त्रसकाय इन छह काय जीवों की रक्षा करना तथा पाँच इन्द्रियों और छठे मन को वश में करना ये १२ व्रत हैं । इन बारह व्रतों का न होना १२ प्रकार का असंयम अर्थात् अविरति है । कहा भी है
"असं मपच्चओ दुविहो इन्द्रियासंजम पाणासंजमभेएण । तत्थ इन्दियासंजमो छविहो परिसरस- रुव-गंधसह- गोइंडिया संजममेएण । पाणासंजमो वि छग्विहो पुढवि आउ-तेउ वाउ वणफदितसा संजमभेएण । असंजमसम्वसम्मासो बारस ।"
इन बारह असंयमों में से त्रस असंयम ग्यारहवीं प्रतिमावाले पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक के नहीं होता है शेष ग्यारह असंयम अर्थात् अविरत होते हैं । ( धवल पु० ८ पृ० २१-२२ )
— जै. ग. 4-9-69/ VII / जैन समाज, रोहतक
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क्षुल्लक सवारी का उपयोग नहीं कर सकता
शंका- क्या क्षुल्लक सवारो का उपयोग कर सकता है ?
समाधान - क्षुल्लक समस्त परिग्रह का त्यागी होता । यदि वह सवारी में बैठता है तो उसके किराये के लिए उसको पैसा अर्थात् परिग्रह रखना पड़ेगा तथा उस पैसे के लिए याचना करनी पड़ेगी। दूसरे, क्षुल्लक के सर्व प्रकार के आरम्भ का भी त्याग है, अतः यदि वह सवारी का उपयोग करता है तो उसको आरम्भ सम्बन्धी दोष लगता है । तीसरे, सवारी में बैठकर सामायिक आदि करने से क्षेत्रपरिणाम नहीं बनता, अत: सामायिक में दोष लगता है । सारतः क्षुल्लक को सवारी में नहीं बैठना चाहिए ।
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- पलाधार / ज. ला. जैन, भीण्डर
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