Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-श्रावक की छठी प्रतिमा के दो नाम हैं (१) रात्रि भोजन त्याग (२) दिवस मैथुन त्याग । अतः इन दोनों नामों की अपेक्षा से छठी प्रतिमा के दो प्रकार के स्वरूप का कथन पाया जाता है। बावक के अभक्ष्य का त्याग होता है । उस अभक्ष्य के त्याग में रात्रि भोजन त्याग हो जाता है। मांस के त्याग से भी रात्रिभोजन का त्याग हो जाता है। हिसा-त्याग में भी रात्रि भोजन त्याग गभित है। अत: छठी प्रतिमा में रात्रि भोजन त्याग न बतलाकर दिवस मैथुन त्याग बतलाया गया है। क्योंकि सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा में मथुन का सर्वथा त्याग किया जाता है।
रात में स्वयं भोजन करने का त्याग तो पूर्व में ही हो गया था। छठी प्रतिमा में कारित और अनुमोदन का भी त्याग हो जाता है। इसलिये इसका नाम रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा रखा गया है। कहा भी है
"ण य भुजावदि अण्णं णिसि-विरमओ सो हवे भोज्जो ॥३८२॥ ( स्वा. का. अ.)
इसके अर्थ में श्री पं० कैलाशचन्द्रजी ने लिखा है-रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय चारों ही प्रकार के भोजन को स्वयं न खाना और न दूसरे को खिलाना रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है। वैसे रात्रि भोजन का त्याग तो पहली-दूसरी प्रतिमा में ही हो जाता है, क्योंकि रात में भोजन करने से मांस खाने का दोष लगता है। रात में जीव जन्तुओं का बाहुल्य रहता है और तेज से तेज रोशनी होने पर भी उनमें धोखा हो जाता है, अतः त्रसजीव घात भी होता है। परन्तु यहाँ कृत और कारितरूप से चारों ही प्रकार के भोजन का त्याग निरतिचाररूप से होता है।
छठीप्रतिमावाला श्रावक रात्रि में मेहमान रिश्तेदार आदि को भी भोजन नहीं करायेगा। यदि घर का । अन्य कोई भोजन करा देता है तो उसकी अनुमोदना नहीं करेगा। इसलिये छठी प्रतिमा का नाम रात्रिभुक्ति त्याग रखा गया है।
छठी प्रतिमा के दो नाम होने में कोई बाधा भी नहीं है। धर्मध्यान के दूसरे भेद के भी दो नाम हैं एक उपायविचय दूसरा अपायविचय । सम्यग्दर्शन के पांचवें अंग के दो नाम हैं उपगृहन और उपवृहण ।
-जं.ग. 18-12-69/VII/ बलवन्तराय ब्रह्मचारी संज्ञा किसकी ? शंका-जैनागमानुसार ब्रह्मचारी संज्ञा कौनसी प्रतिमाधारी को होती है ?
समाधान-ब्रह्मचारी के पांच भेद हैं-१. उपनय ब्रह्मचारी-गणधर सूत्र को धारण कर आगम का अभ्यास करते हैं फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं । २. अवलम्ब ब्रह्मचारी-क्षुल्लक का रूप धारण कर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं फिर गृहस्थ अवस्था धारण कर लेते हैं। ३. अदीक्षा ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारी भेष के बिना पागम का अभ्यास करते हैं फिर गृहस्थ धर्म में निरत हो जाते हैं। ४. गूढ़ ब्रह्मचारी-कुमार अवस्था में मुनि ही आगम का अभ्यास कर बंधुवर्ग के कहने से तथा परीषह सहन न होने से अथवा राजा की प्राज्ञा से मुनि दीक्षा छोड़ गृहस्थ में रहने लगते हैं । ५. नैष्ठिक ब्रह्मचारी-समाधिगत, सिर पर चोटी का लिंग, उर ( छाती ) पर गणधर मत्र का लिंग, लाल या सफेद खंड वस्त्र व कोपीन, कटि, लिंग, स्नातक, भिक्षावृत्ति, जिन पूजा में तत्पर रहते हैं (चारित्रसार पृ० ४२ )।
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