Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ७११
वदसमिदी गुत्तीओ धम्माणुपेहा परिसहजओ ।
चारित्तं बहभेया णायब्बा भावसंवर-विसेसा ॥३५॥ वृहद् द्रव्यसंग्रह अर्थ-व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और बहत प्रकार का चारित्र ये सब भावसंबर के भेद जानने चाहिए ।।३।। इस गाथा में भी श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतदेव ने व्रत को भावसंवर कहा है। वीतरागरूप परिणाम ही भावसंवर हो सकते हैं अतः व्रत भावसंवररूप होने से वीतरागता का माप है। यदि व्रत को राग का
को भावसंवर की बजाय भाव आस्रव मानना पड़ेगा और भाव आस्रव मानने से उपयुक्त पागम से विरोध आवेगा।
इसप्रकार इन उपर्युक्त आगमों से यह स्पष्ट है कि बंध का कारण अध्यवसाय है व्रत नहीं हैं। व्रत तो संवररूप होने से वीतरागता के द्योतक हैं, राग के द्योतक नहीं हैं । अत: व्रत वीतरागता के माप हो सकते हैं, राग के माप नहीं हो सकते।
यदि यहाँ कोई यह आशंका करें कि मोक्षशास्त्र में व्रतों को पूण्यास्रव का कारण कहा है तो उस पर प्रतिशंका की जा सकती है कि-मोक्षशास्त्र अध्याय ६ सूत्र २१ में सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) को देवायु के प्रास्रव का कारण भी तो कहा है। वास्तव में व्रत ( चारित्र ) या सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) आस्रव के कारण नहीं है यदि सम्यग्दर्शन व चारित्र आस्रव के कारण हो जावें तो संवर निर्जरा व मोक्ष किन परिणामों से होगा? अतः सम्यक्त्व व व्रत तो संवर, निर्जरा व मोक्ष के साधन अथवा भावसंवर निर्जरा एवं मोक्षरूप हैं। सम्यक्त्व व व्रत के होते संते जो कषाय व योग होता है वह राग व योग मानव को कारण है। सम्यक्त्व व व्रत के साथ कषाय व योग कहाँ पर होता है इस का खुलासा इसप्रकार है।
सम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली ( चौदहवें ) गुणस्थान तक होते हैं (षट्खंडागम पुस्तक १ पृष्ठ ३९६ सूत्र १४५ ) व्रती अर्थात् संयतजीव प्रमत्तसंयत (छठे ) गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान तक होते हैं ( षटखंडागम पु० १ पृष्ठ ३७४ सूत्र १२४ ) । असंयत सम्यग्दष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय ( दसवें) गुणस्थान तक कषाय का उदय रहता है और उपशांतमोह, क्षीणमोह व सयोगिकेवली गुणस्थानों में योग रहता है अतः सम्यग्दर्शन व संयम ( व्रत ) के साथ होनेवाले कषाय व योग अथवा मात्रयोग के कारण सयोगी तेरहवें गुणस्थान तक आस्रव होता है।
सम्यक्त्व व व्रत आस्रव के कारण न होते हुए भी योग व कषाय की संगति से आस्रव के कारण कह दिये जाते हैं अर्थात् मोक्षशास्त्र में कह दिये गये हैं। श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय में इसप्रकार कहा है जितने अंशों में सम्यग्दर्शन व चारित्र है उतने अंशों में बंध नहीं है जितने अंशों में राग है उतने अंशों में बंध है। योग से प्रदेशबंध होता है कषाय से स्थितिबंध होता है। दर्शन व चारित्र न योगरूप हैं, न कषायरूप हैं। सम्यक्त्व और चारित्र के होते हए तीर्थकर व आहारक का बंध योग व कषाय से होता है। (गाथा २१२, २१३, २१४, २१५ व २१८)
यदि वत संवर के कारण हैं प्रास्त्रव के कारण नहीं हैं तो समाधिशतक श्लोक ८३ व ८४ में अवतों के समान बतों के छोड़ने का उपदेश क्यों दिया? ऐसा प्रश्न होने पर उसका उत्तर इस प्रकार है-समाधिशतक में बतों के विकल्प के छोड़ने का उपदेश है। वतों के विकल्प को भी उपचार से 'वत' शब्द से संकेत कर देते हैं। अतः उक्त श्लोक ८३ व ८५ में 'व्रत शब्द से अभिप्राय व्रतों के विकल्प का है। रागादि की निवृत्ति व्रत है और वत भावसंबर है। जैसा कि ऊपर आगम प्रमाण द्वारा सिद्ध किया जा चुका है। फिर ऐसे लक्षण वाले व्रत को छोडने का उपदेश वीतरागी आचार्य कैसे दे सकते हैं ? क्योंकि व्रत तो मोक्षमार्ग हैं। वत को छडाना अर्थात मोक्षमार्ग को छुड़ाना है।
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