Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
७०६ ]
। पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
दलमला हुआ जल तथा सूर्य की धूप से तप्तायमान जल को अणुवती तिर्यच पीता है, कपड़े के द्वारा जल छानना तियंच के लिये शक्य नहीं है। श्री पार्श्वपुराण में कहा भी है
अब हस्ती संजम साधे, त्रस जीव न भूल विराध । समभाव छिमा उर आन, अरि मित्र बराबर जाने । काय कसि इन्द्री दंडे, साहस धरि प्रोषध मंडे । सूखे तृण पल्लव भच्छ, परमदित मारग गच्छ । हाथीगन डोह्यो पानी, सो पीवै गजपति ज्ञानी। देखे बिन पाँव न राखे, तन पानी पंक न माखे । निज शोल कभी नहीं खोवं, हथिनी विशि भूल न जोवे । उपसर्ग सहै अतिभारी, दुर्यान तजे दुःखकारी ॥
-ज.सं. 23-5-57/जन स्वा. म., कुचामन
अनती समकिती मनुष्य तथा देशसंयमी तिथंच "श्रावक" नहीं हैं शंका-चतुर्थगुणस्थानी श्रावक है या नहीं और पंचमगुणस्थानी तिथंच भी श्रावक है या नहीं ?
समाधान-श्रावक पद का इसप्रकार अर्थ है 'अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणवतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्सायनामागारिणां च सामाचारों शृणोतीति धावकः ।" अर्थात-जो सम्यक्त्वी और अणुवती होने पर भी प्रतिदिन साधुनों से गृहस्थ और मुनियों के प्राचारधर्म को सुने वह श्रावक कहलाता है। कहीं पर 'श्रावक' शब्द का अर्थ इसप्रकार किया गया है
"श्रद्धालुतां श्रातिशृणोति शासनं, वीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम् । कृतत्वं पुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहरमीविचक्षणाः ।।
अर्थ-जो श्रद्धालु होकर जैन शासन को सुने, दीन-जनों में अर्थ का वपन करे अर्थात् दान दे, सम्यग्दर्शन को धारण करे, सुकृत और पुण्य के कार्य करे, संयम का आचरण करे उसे विचक्षणमन श्रावक कहते हैं। श्री पचनन्दि-पंच-विशतिका में भी इसप्रकार कहा है
"तम्यग्दृगबोध चारित्र त्रितयं धर्म उच्यते । मुक्तः पन्था स एव स्याप्रमाण परिनिष्ठितः ॥२॥ सम्पूर्ण देशभेदाभ्यां स च धर्मोद्विधाभवेत् । आद्यो भेदे च निर्ग्रन्था द्वितीये गृहिणः स्थिताः ॥४॥ देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानञ्चेति गृहस्थानां षट कर्माणि दिने दिने ॥७॥ देशव्रतानुसारेण संयमोऽपि निषेव्यते ।
गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवद् व्रतम् ॥२२॥" अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र इन तीनों के समुदाय को धर्म कहते हैं तथा प्रमाण से निश्चित यह धर्म ही मोक्ष का मार्ग है।॥ २॥ और वह रत्नत्रयात्मक धर्म सर्वदेश तथा एकदेश के भेद से दो प्रकार का है। उसमें सर्वदेशधर्म का तो निग्रन्थ मुनि पालन करते हैं और एकदेश धर्म का गृहस्थ पालन करते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org