Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जन मुख्तार :
अवती की पिच्छिका रखना, लोंच करना, स्नान त्याग आदि क्रियाएँ प्रागमबाह्य हैं।
शंका-कानजी भाई अपने को अव्रती घोषित करते हुए भी पीछी रखते हैं, केशलोंच करते हैं, थाली में पर धलाते हैं, आहार लेते समय दक्षिणा के रूप में कुछ रुपये भी लेते हैं, क्या ये सब क्रियायें दिगम्बर जैन धर्म के अनसार ठीक हैं ? जब कि दिगम्बर जैन धर्म में केशलोंच और पीछो का विधान क्षुल्लक, ऐलक और मुनियों के लिये ही बतलाया गया है। ( नोट-'सोनगढ़ की संक्षिप्त जीवन झांकी' के पृष्ठ २ पर लिखा है कि स्वामीजी अर्थात कानजी स्वामी के स्नान का त्याग है और केशोत्पाटन करते हैं। सागरविद्यालय के स्वर्ण जयन्ति संस्करण में जो कानजीस्वामी का फोटू १९५७ ई० में प्रकाशित हुआ है, उसमें पीछी है)।
समाधान-श्री कानजी भाई असंयमी हैं। असंयमी के लिये पीछी रखना, केशलोंच करना, स्नान का त्याग करना इत्यादि सब क्रियायें दिगम्बर जैन आगम अनुसार नहीं हैं। प्राचार्यकल्प पंडितवर श्री टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार में कहा है- 'बहुरि जिनके सांचा धर्म साधन नाही, ते कोई क्रिया तो बहत बडी अंगीकार करै अर कोई हीन क्रिया किया करें। जैसे धनादिक का तो त्याग किया पर चोखा भोजन चोखा वस्त्र इत्यादि विषयनि विर्षे विशेष प्रवर्त। कोई क्रिया अति ऊंची, कोई क्रिया अति नीची करें तहाँ लोकनिंद्य होय, धर्म की हास्य करावें। जैसे कोई पुरुष एक वस्त्र तो अति उत्तम पहर, एक वस्त्र अतिहीन पहरै, तो हास्य ही होय । तैसे यह हास्य को पावे है। सांचा धर्म की तो यह प्राम्नाय है, जेता अपना रागादि दूरि भया होय, ताके अनसार जिस पद विष जो धर्म क्रिया संभवै सो अंगीकार करें।'
-जें.सं. 16-10-58/VI/इ. घ. छाबड़ा, लम्कर
असंयमी पूजनीय नहीं; उसकी फोटो भी मन्दिरजी में वर्जनीय है
शंका-क्या असंयत पूजनीय है ? क्या उसकी फोटू जिन मंदिरजी में लगाई जा सकती है ?
समाधान-रत्नत्रय को ही देव-पना प्राप्त है और वही पूजनीय है। अतः जो रत्नत्रय से युक्त है अथवा जो रत्नत्रय के आयतन हैं वे भी रत्नत्रय के कारण देवपने को प्राप्त हो जाते हैं अतः वे भी पूजनीय हैं। किंतु जो रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र से युक्त नहीं हैं वे श्रावकों के द्वारा पूजनीय नहीं हैं।
वोडिनाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेदभिन्नानि, तद्विशिष्टो जीवोऽपि देवः अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्तः। धवल पु०१पृ० ५२
-अपने अपने भेदों से अनन्तभेदरूप रत्नत्रय ही देव हैं, प्रतः रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव हैं। यदि रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की अपेक्षा देवपना न माना जाय तो सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जायगी।
प्रथम चार गुणस्थान वाले जीव असंयत होते हैं, अतः उनके रत्नत्रय संभव नहीं है। चतुर्थ गुणस्थान में यद्यपि सम्यग्दर्शन हो जाता है, किंतु संयम नहीं होता है अतः उसकी असंयतसम्यग्दष्टि ऐसी संज्ञा है।
जो इंदिएसु विरदो जो जोवे थावरे तसे चावि । जो सद्दहदि जित सम्माइट्ठी अविरको सो ॥२९॥ गो० जी०
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