Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
कान्तारे पतितो दुर्गे, गर्ताद्यपरिहारतः । यथान्धो नाश्नुते मार्ग, मिष्टस्थान प्रवेशकम् ॥७७॥ पतितो भव-कान्तारे, कुमार्गपरिहारतः। तथा नाप्तोत्यशास्त्रज्ञो, मागं मुक्ति प्रवेशकम् ॥७॥ ना भक्तिर्यस्य तथास्ति, तस्य धर्म-क्रियाखिला। अन्ध लोक क्रियातुल्या, कर्मदोषादसत्फला ॥७९॥ [ योगसार प्राभृत ]
जिस प्रकार मलिन वस्त्र का जल से शोधन होता है, उसी प्रकार रागादि दोषों से दूषित मन का संशोधन जिनवाणी स्वरूप शास्त्र से होता है । चूकि जिनवाणी रूप आगम में निरन्तर लगी हुई बुद्धि मुक्ति को प्राप्त कराती है, इसलिये संसार के दुःखों से भयभीत भव्य पुरुषों को आगम के अध्ययन श्रवण में मन को लगाना चाहिये। जिस प्रकार दुर्गम वन में पड़ा हुप्रा अन्धा मनुष्य खड्डे आदि से नहीं बच सकता और यथार्थ मार्ग को नहीं पाता है, उसी प्रकार भव वन में पड़ा हुआ यह जीव जिनवाणी के बिना कुमार्ग से नहीं बच सकता तथा यथार्थ मोक्ष-मार्ग को नहीं पाता। जिसकी जिनवाणी में भक्ति नहीं है उसकी समस्त धर्मक्रिया अन्धे व्यक्ति की क्रिया के समान होती है, अतः वह क्रिया दूषित होने के कारण यथार्थ फल को नहीं देती।
समुद्रघोषाकृतिरर्हति प्रभो, यदात्वमुत्कर्षमुपागता भृशम् । अशेष भाषात्मतया त्वया तदा, कृतं न केषां हृदि मातरभुवम् ॥१४॥ नणां भवत्संनिधि संस्कृतं श्रवो, विहायनान्यद्धितमक्षयं च तत् । भवेद्विवेकार्थमिदं परं पुनविमूढतार्थविषयं स्वमर्पयत् ॥१७॥ अगोचरो वासरकृन्निशाकृतोर्जनस्य यच्चेतसि वर्तते तमः। विभिद्यते वागधिदेवते त्वया, त्वमुत्तमज्योतिरिति प्रगीयसे ॥२०॥ परात्मतत्वप्रतिपत्तिपूर्वकं, परंपदं यत्र सति प्रसिद्धयति । कियत्ततस्ते स्फुरतः प्रभावतो, नपत्वसौभाग्यवराङ्गनादिकम् ॥२२॥
[पद्म. पं० वि० अधिकार १५ ]
जिनेन्द्र भगवान की जो समुद्र के शब्द समान गम्भीर दिव्यध्वनि खिरती है यही वास्तव में जिनवाणी की सर्वोत्कृष्टता है। इसे ही गणधरदेव बारह अंगों में ग्रथित करते हैं। उसमें यह अतिशय है कि समद शम निरक्षरी होकर भी श्रोताजनों को अपनी-अपनी भाषास्वरूप प्रतीत होती है। जो मनुष्य अपने कानों से जिनवाणी का श्रवण करते हैं, उनके कान सफल हैं। जिनवाणी के श्रवण से भव्यों को अविनश्वर सुख की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य जिनवाणी को न सुनकर विषय भोग में प्रवृत्त होते हैं, वे असह्य दुखों को भोगते हैं। लोगों के चित्त में जो प्रज्ञानरूपी अंधकार स्थित है, उस अंधकार को सूर्य, चन्द्रमा नष्ट नहीं कर सकते, किंतु जिनवाणी उस अंधकार को नष्ट कर सकती है अत: जिनवाणी उत्तम ज्योति है। जिनवाणी के प्रभाव से स्व-पर का भेदज्ञान हो जाने से मोक्षपद की प्राप्ति हो जाती है। फिर जिनवाणी की उपासना से राजपद आदि मिलना तो सरल है।
इस प्रकार दि. जैन आचार्यों ने जिनवाणी के श्रवण विषय को मोक्ष का कारण कहा है। इसको स्त्रीविषय के समान कहना मिथ्यात्व की अति तीव्रता है।
-णे. ग. 10-7-75/VI/ रा. म. छाबड़ा, कुचामन सिटी
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