Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
रभ्युपायः स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । अर्थ-इष्टफल की सिद्धि का उपाय सम्यग्ज्ञान है। सो सम्यग्ज्ञान यथार्थ आगम ( शास्त्र ) से होता है और शास्त्र की उत्पत्ति आप्त से होती है ।
यद्यपि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है और शास्त्र का गुण नहीं है फिर भी इस ज्ञान का अनन्त बहभाग कर्मों द्वारा अनादि काल से घाता हुआ है। आत्मा अपने गुण का स्वयं घातक नहीं हो सकता है। यदि आत्मा स्वयं अपने गुण का घातक हो जावे तो सिद्धों में भी ज्ञान गुण का घात होना चाहिए, क्योंकि कारण के होते हए कार्य अवश्य होना चाहिए, किन्तु सिद्धों में ज्ञान गुण का घात पाया नहीं जाता। यह सिद्ध है कि ज्ञानगुण का घात अर्थात् ज्ञानगुण में हीनता या ज्ञान का अटकना स्वयं आत्मा की योग्यता से नहीं हुआ किन्तु पर द्रव्य के निमित्त से हुआ है। वह परद्रव्य ज्ञानावरण कर्मोदय के अतिरिक्त अन्य हो नहीं सकता। कहा भी है-णाणनववोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयट्टो। तमावारेदि ति णाणावरणीयं कम्मं । अर्थात् ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद ये शब्द एकार्थवाचक नाम हैं। इस ज्ञान का जो आवरण करता है वह ज्ञानावरण कर्म है । इस ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम स्वाध्याय, शास्त्रदान, जिनपूजन आदि मे होता है । ज्ञातावरण पापकर्म है और पूजन व दान आदि से पापकर्म का अनुभाग मन्द हो जाता है जिससे प्रज्ञानरूपी अन्धकार दूर हो जाता है। यह स्वानुभवगम्य है। पण्डित टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ९ पर लिखा है-अरिहंता विषं स्तवनादि रूप भाव ही है सो कषायनि की मन्दता लिये ही हैं तात विशुद्ध परिणाम हैं । बहुरि समस्त कषायभाव मिटावन को साधन है, ताते शुद्ध परिणाम का कारण है सो ऐसे परिणाम करि अपना घातक घातिकर्म का हीनपना होने से सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रकट होता है। जितने अंशनि करि वह हीन होय है तितने अंशनि करि वह प्रकट होय है । ऐसे अरिहंताबिकरि ( देवगुरुशास्त्र ) अपना प्रयोजन सिद्ध होता है ।
स्वाध्याय के समय शास्त्रविनय का विशेष ध्यान रखना चाहिए । शास्त्रसभा में बहुत से भाई अपने सामने शास्त्र खोलकर विराजमान कर लेते हैं। वक्ता का आसन इन शास्त्रों से ऊंचा रहने के कारण शास्त्र की प्रविनय होती है। शौचादि क्रिया के पश्चात् बिना स्नान किये श्रावक को शास्त्र का स्पर्श नहीं करना चाहिये, इससे भी शास्त्र-अविनय होती है। श्रावक को प्रतिदिन स्नान करके शास्त्र स्पर्श करना चाहिए । शास्त्रस्वाध्याय के समय दूधजलादि पान नहीं करना चाहिए-इससे भी अविनय होती है । पैर प्रादि के हाथ लगजाने पर हाथ धोने चाहिए।
सविनय स्वाध्याय करने से अज्ञानरूपी अन्धकार अवश्य दूर होगा।
-जं. सं. 10-10-57/VI/ भा. घ. जैन, तारादेवी
शास्त्राध्ययन का क्रम क्या होना चाहिये ?
शंका-क्या केवल आध्यात्मिक ग्रन्थों से वस्तुस्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता? यदि नहीं तो किस क्रम से शास्त्रस्वाध्याय करना चाहिए जिससे वस्तुस्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान हो सके ?
समाधान-आध्यात्मिक ग्रन्थों में बहुधा जीव द्रव्य का शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कथन होता है और शुद्ध निश्चयनय द्रव्य की केवल शुद्ध अवस्था का कथन करता है। शुद्ध अवस्था वस्तु ( द्रव्य ) की शुद्ध पर्याय है। अनन्त गुणों और अनन्त पर्यायों का समूह द्रव्य है। कहा भी है-एयदवियम्मि जे अत्थपज्जया बियणपज्जया चावातीदाणागवभदा तावदियं तं हवदि दव्वं । एक द्रव्य में जितनी अतीत अनागत वर्तमान (त्रिकाल )
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