Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६७३ वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित जीव के शुद्धोपयोग की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की देव, गुरु, शास्त्र की श्रद्धा तथा सम्यग्दर्शन के चिह्न अनुकम्पा को भी हेय कह दिया गया है। क्योंकि वीतरागनिर्विकल्पसमाधि में देव.. शास्त्र, गुरु की श्रद्धा के विकल्प तथा अनुकम्पा के विकल्प नहीं रहते।
किन्तु प्रवचनसार गाथा २५४ में कहा है कि शुद्धात्मानुराग युक्त प्रशस्तचर्या रूप जो शुभोपयोग अर्थात् शुद्धास्मारूप जिनेन्द्रदेव व निग्रंन्थगुरु में अनुराग ( पूजा, वैयावृत्ति आदि ) जो यह शुभोपयोग है, वह शुभोपयोग गृहस्थों के तो मुख्य है, क्योंकि गृहस्थ के सर्वविरति के अभाव से शुद्धात्म-प्रकाशन का अभाव है और कषाय के सद्भाव के कारण प्रवृत्ति होती है । जैसे इंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है और वह क्रमशः जल उठता है उसी प्रकार गृहस्थ को शुद्धात्मानुराग (जिनेन्द्रदेवनिम्रन्थ गुरु आदि की पूजा, वयावृत्ति आदि) के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और इसीलिए वह शुभोपयोग क्रमश: परम निर्वाण-सौख्य का कारण होता है।
जैनधर्म का मूल सिद्धान्त अनेकान्त है । जैसे एक ही लकीर ( Line ) अपने से बड़ी लकीर की अपेक्षा छोटी है, किन्तु वही लकीर अपने से छोटी लकीर की अपेक्षा बड़ी है। वह लकीर न तो सर्वथा छोटी है और न सर्वथा बड़ी है । जो उस लकीर को सर्वथा छोटी मानता हो या सर्वथा बड़ी मानता है वह एकान्त मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि लकीर न सर्वथा बड़ी है और न ही सर्वथा छोटी है।
इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि की देवपूजा आदि को जो सर्वथा आस्रव व बंध का कारण मानता है वह एकान्तमिध्यादष्टि है, क्योंकि समयसार गाथा १९३ में सम्यग्दृष्टि के इन्द्रियों द्वारा पर-द्रव्य के उपभोग को निर्जरा का कारण कहा तो सम्यग्दृष्टि की जिनेन्द्रपूजा कसे निर्जरा का कारण नहीं होगी अर्थात् अवश्य होगी।
इसी प्रकार यदि कोई जिनपूजा आदि से अल्प कर्मबंध भी स्वीकार न करे तथा समस्त कर्मों की निर्जरा माने तो वह भी मिथ्याइष्टि है, क्योंकि वह कभी भी वीतरागनिर्विकल्पसमाधि में स्थित होने का प्रयत्न नहीं करेगा।
आगम में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से भिन्न भिन्न कथन पाये जाते हैं । जिस अपेक्षा से जो कथन किया गया है उसी अपेक्षा से वह कथन सत्य है, किन्तु उस कथन को जो सर्वथा मान लेते हैं वे मिथ्याष्टि हो जाते हैं, क्योंकि 'सर्वथा' मिथ्यारष्टियों का वचन है और 'कथंचित' ( किसी अपेक्षा से ) सम्यग्दृष्टियों का वचन है। कहा भी है
परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सम्वहा वयणा ।
जहणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि-वयणादो ॥ ज.ध. पु. १ पृ. २४५ अर्थ-परसमयों ( पर मतों ) का वचन वास्तव में मिथ्या है क्योंकि उनका वचन 'सर्वथा' लिए हुए होता है । जैनों का वचन वास्तव में सम्यक् है क्योंकि वह 'कथंचित्' अर्थात् अपेक्षा को लिये हुए होता है, 'सर्वथा' नहीं होता।
-ज'. ग. 22, 29-10-64/IX/र. ला. जैन, मेरठ भक्ति व पूजा आदि व्यवहार से धर्म हैं तथा मोहादि को हानि के कारण हैं। शंका-श्री भावपाहुर गाथा ८३ का क्या यह अभिप्राय है कि पूजादिक व व्रतादि केवल पुण्य बंध के ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org