Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
६७२ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार :
वि तुमम्मि जिणवर मध्ये तं अध्पणो सुकयलाहं । होही सो जेणासरिस सुहणिही अक्खओ मोक्खो ॥ ७४७ ॥ पं. नं. पं.
अर्थ - है जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर मैं अपने उस पुण्यलाभ को मानता हूँ जिससे कि मुझे श्रनुपम'के भण्डार स्वरूप वह अविनश्वर मोक्ष प्राप्त होगा ।
सुख
बिट्ठ े तुमम्मि जिणवर ददुव्यावहि
विसेस रुम्मि ।
दंसणसुद्धीए गयं दाणि मम णत्थि सव्वत्य ॥७६० ॥ पं. नं. पं.
अर्थ - हे जिनेन्द्र ! सर्वाधिक दर्शनीय आपका दर्शन होने से जो दर्शनविशुद्धि हुई है, उससे यह निश्चय हुआ कि सब बाह्य पदार्थ मेरे नहीं हैं ।
श्री पद्मनन्द आचार्य कहते हैं कि जो मात्र चर्मचक्षु से भी जिनेन्द्र के दर्शन कर लेता है उसको भी भविष्य में मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
बिट्ट े तुमम्मि जिणवर चम्ममरणच्छिणा वि तं पुष्णं ।
जं जणइ पुरो केवल दंसण णाणाई णयणाई ॥७५७॥ पं. नं. पं.
अर्थ - हे जिनेन्द्र ! चर्ममय नेत्र से भी आपका दर्शन होने पर वह पुण्य प्राप्त होता है जो कि भविष्य में केवलदर्शन और केवलज्ञानरूप नेत्र को उत्पन्न करता है ।
श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शन और पूजन से सम्यग्दर्शन व मोक्ष की प्राप्ति होती है, किन्तु श्री जिनेन्द्रदेव के नाम मात्र से भी मोहनीयकर्म का नाश हो जाता है । इसी बात को आचार्य श्री मानतुंग कहते हैं
-
Jain Education International
आस्तां तवस्तवन मस्तसमस्तदोषं त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ ९ ॥ भक्तामर स्तोत्र
अर्थ - हे विभो ! आदि जिनेन्द्र ! आपकी स्तुति सर्वं दोषों ( राग, द्वेष, मोह ) का क्षय करने वाली
। सो वह स्तुति तो दूर ही रहो, केवल आपके नाममात्र की कथा भी जगत के मोहनीयकर्मरूपी पापों को नष्ट कर डालती है । जिस तरह सूर्य बहुत दूर रहता हुआ भी अंधकार का नाश कर प्रकाश करता तथा कमल-वन में कमल के फूलों को विकसित कर देता है ।
इन श्रागम प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि जिनेन्द्रभक्ति, पूजा व दर्शन मात्र आस्रव व बंध का कारण नहीं है, किन्तु संवर- निर्जरा व मोक्ष का भी कारण है ।
जिस प्रकार सराग- सम्यग्दर्शन, सराग-संयम से आश्रव बंध और संवर- निर्जरा भी होती है तथा मोक्ष का भी कारण है उसी प्रकार सराग भक्ति से आस्रव-बंध और संवर-निर्जरा भी होती है तथा वह मोक्ष का भी कारण है।
मिथ्यादष्टि जीवों के द्वारा की गई जिनेन्द्र पूजा आदि मात्र पुण्यबंध का कारण होती है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव को जिनेन्द्र के गुण वीतरागता आदि का ज्ञान नहीं है और वह अतीन्द्रिय सुख को भी नहीं जानता, वह मात्र इन्द्रियजनित सुख को सुख जानता है और उसी सुख के लिए वह पूजन, दान, तप आदि करता है; इसीलिये उसको पुण्य बंध से इन्द्रिय सुख मिल जाता है । इसी दृष्टि से प्रवचनसार की टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने पूजा आदि को मात्र इन्द्रियसुख का साधनभूत कहा है।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org